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गुरू पूर्णिमा का महत्त्व

  किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च । दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥ गुरू पूर्णिमा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण आभ...

Friday 1 January 2016

यजुर्वेद संहिता

!!!---: यजुर्वेद-संहिता :---!!!
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"यजुस" के नाम पर ही वेद का नाम यजुस+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। "यजुस्" का अर्थ समर्पण से होता है । इसका मुख्य अर्थ हैः---

(1.) "यजुर्यजतेः " (निरुक्तः-7.12) अर्थात् यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को "यजुष्" कहते हैं ।

(2.) "इज्यतेनेनेति यजुः ।" अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता है, उन्हें यजुष् कहते हैं । पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्ध, योग, इंद्रिय निग्रह इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है । यजुर्वेद का यज्ञ के कर्मकाण्ड से साक्षात् सम्बन्ध है, अतः इसे "अध्वर्युवेद" भी कहा जाता है । यज्ञ में अध्वर्यु नामक ऋत्विज् यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करता है और वही यज्ञ का नेतृत्व करता है । इसीलिए सायण ने कहा है कि वह यज्ञ के स्वरूप का निष्पादक है ।

(3.) अनियताक्षरावसानो यजुः । अर्थात् जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।

(4.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा---2.1.37) अर्थात् पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि सभी गद्यात्मक मन्त्र-रचना यजुः की कोटि में आती है ।

(5.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः । अर्थात् एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पज-समूह को एक यजुः कहेंगे । इसका अभिप्राय यह है कि एक सार्थक वाक्य को यजुः की एक इकाई माना जाता है ।

मुख्यवेद-- यजुर्वेद
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तैत्तिरीय-संहिता के भाष्य की भूमिका में सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद भित्ति (दीवार) है और अन्य ऋग्वेद एवं सामवेद चित्र है । इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है । यज्ञ को आधार बनाकर ही ऋचाओं का पाठ और सामगान होता है ।

"भित्तिस्थानीयो यजुर्वेदः, चित्रस्थानावितरौ । तस्मात् कर्मसु यजुर्वेदस्यैव प्राधान्यम् ।" (तै.सं. भू.)

यजुर्वेद का दार्शनिक रूपः---
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ब्राह्मण-ग्रन्थों में यजुर्वेद का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया गया है । यजुर्वेद विष्णु का स्वरूप है, अर्थात् इसमें विष्णु (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन है । "यजूंषि विष्णुः।" शतपथ-ब्राह्मण---4.6.7.3) ) यजुर्वेद प्राणतत्त्व और मनस्तत्त्व का वर्णन करता है , अतः वह प्राण है, मन हैः---"प्राणो वै यजुः।" (शतपथ-ब्राह्मण--14.8.14.2) । "मनो यजुः।" (शतपथ-ब्राह्मण---14.4.3.12) यजुर्वेद में वायु और अन्तरिक्ष का वर्णन है, अतः वह अन्तरिक्ष का प्रतिनिधि है । "अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः ।" (षड्विंश-ब्राह्मण--1.5 ) यजुर्वेद तेजस्विता का उपदेश देता है , अतः वह महः (तेज) है । "यजुर्वेदः एव महः ।" (गोपथ-ब्राह्मण--5.15) । यजुर्वेद क्षात्रधर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है. अतः वह क्षत्रियों का वेद है । "यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।" (तैत्तिरीय-ब्राह्मण--3.12.9.2)

इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी। इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण हैः--

अग्निहोत्र
अश्वमेध
वाजपेय
सोमयज्ञ
राजसूय
अग्निचयन

ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं।

राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना
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ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ -- यजुर्वेद २२, मन्त्र २२

अर्थ-
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ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥

संप्रदाय
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यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- आदित्य सम्प्रदाय और ब्रह्म सम्प्रदाय प्रमुख हैं। शुक्लयजुर्वेद आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है । आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित शुक्लयजुर्वेद का आख्यान याज्ञवल्क्य ऋषि ने किया हैः--- आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि । वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येन आख्यायन्ते । (शतपथ-ब्राह्मण---14.9.4.33)

संहिताएँ
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वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।

शाखाएँ
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यजुर्वेद मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैः--(1.) शुक्लयजुर्वेद (2.) कृष्णयजुर्वेद । शुक्लयजुर्वेद को ही वाजयनेयि-संहिता और माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं । याज्ञवल्क्य इसके ऋषि हैं । वे मिथिला के निवासी थे । इनके पिता का नाम वाजसनि होने के कारण याज्ञवल्क्य को वाजसनेय कहते थे । वाजसनेय से सम्बद्ध संहिता वाजसनेयि-संहिता कहलाई । याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के आदित्य (सूर्य) से इस वेद को प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं ।

शुक्ल और कृष्ण भेदों का आधार यह है कि शुक्ल यजुर्वेद में यज्ञों से सम्बद्ध विशुद्ध मन्त्रात्मक भाग है । इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है । ये मन्त्र इसी रूप में यज्ञों में पढे जाते हैं । विशुद्ध और परिष्कृत होने के कारण इसे शुक्ल (स्वच्छ, अमिश्रित) यजुर्वेद कहा जाता है ।

कृष्ण य़जुर्वेद का सम्बन्ध ब्रह्म-सम्प्रदाय से है । इसमें मन्त्रों के साथ ही व्याख्या और विनियोग वाला अंश भी मिश्रित है, अतः इसे कृष्ण (अस्वच्छ, मिश्रित) कहते हैं । इसी आधार पर शुक्ल यजुर्वेद के पारायण कर्त्ता ब्राह्मणों को शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद के पारायण कर्त्ता ब्राह्मणों को मिश्र नाम दिया गया है ।

महर्षि पतञ्जलि ने यजुर्वेद की 101 शाखाओँ का उल्लेख किया है । एकशतमध्वर्युशाखाः । (महाभाष्य-पस्पशाह्निक) षड्गुरुशिष्य की सर्वानुक्रमनिका की वृत्ति में तथा कूर्मपुराण में भी यजुर्वेद की 100 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । परन्तु चरणव्यूह में यजुर्वेद 86 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । इसका विवरण भी वहाँ दिया हुआ हैः---(1.) चरकशाखा--12, (2.) मैत्रायणीय--7, (3.) वाजयनेय---17, (4.) तैत्तिरीय---6, (5.) कठ---44

इस समय यजुर्वेद की केवल 6 शाखाएँ ही उपलब्ध होती है, और यही नाम भी उपलब्ध है । अन्य शाखाएँ लुप्त हो गईं या आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया ।
(1) शुक्लयजुर्वेदः---वाजसनेयि (माध्यन्दिन) और कण्व-शाखा
(2.) कृष्णयजुर्वेदः-- काठक , कपिष्ठल, मैत्रायणी , तैत्तिरीय ।

शुक्लयजुर्वेदः--
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सम्प्रति शुक्लयजुर्वेद की दो शाखाएँ ही उपलब्ध होती हैः--

(1.) माध्यन्दिन या वाजसनेयि-संहिता---
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इसमें 40 अध्याय और 1975 मन्त्र हैं । इसमें कुल 2,88,000 शब्द हैं । इसका अन्तिम अध्याय 40वाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद् कहलाता है । इस शाखा का प्रचार सम्प्रति उत्तर भारत में है ।

(2.) काण्व-संंहिता ---
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इसमें भी 40 अध्याय हैं किन्तु मन्त्र अधिक है---2086 अर्थात् वाजसनेयि-शाखा से इसमें 111 मन्त्र अधिक है । इसमें अध्याय 40, अनुवाक 328 और मन्त्र 2086 है । दोनों शाखाओं के मन्त्रों के क्रम में भी अन्तर है । इस शाखा के ऋषि महर्षि कण्व है, जो ऋग्वेद के कई सूक्तों के ऋषि भी हैं, इसका वंश भी उपलब्ध होता है । इनके पिता बोधायन माने जाते हैं और गुरु याज्ञवल्क्य थे । सम्प्रति इस शाखा का प्रचार महाराष्ट्र में है । किन्तु प्राचीन काल में इसका प्रचार उत्तर भारत में भी था । कण्व ऋषि का सम्बन्ध उत्तर भारत से ही था । साम्राज्ञी शकुन्तला के ये धर्मपिता थे । इनका आश्रम मालिनी नदी (सम्प्रति बिजनौर जिले के कोटद्वार के पास मालन नदी) के तट पर था ।

कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के २७ शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ।

यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्लेखनीय हैं। इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से संबंध दर्शाते हैं। शृंगेरी के शंकराचार्यों में भी यजुर्वेद भाष्यों की विद्वत्ता की परंपरा रही है।

शुक्लयजुर्वेद की विषयवस्तु
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यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है । इसमें विभिन्न यज्ञों की विधियाँ और उनमें पाठ्य मन्त्रों का संकलन है । यज्ञ करने वाले ऋत्विज् को अध्वर्यु कहते हैं । ऋग्वेद में अध्वर्यु के विषय में कहा गया है कि वह यज्ञ का संयोजक और निष्पादक होता है , अतः वह यज्ञ का नेता होता हैः--
"यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः ।" (ऋग्वेदः--10.71.11)

यास्क ने अध्वर्यु की व्याख्या की हैः---"अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता।" (निरुक्तः--1.3)
अर्थात् यज्ञ का संयोजक और यज्ञ का नेता ।

दोनों शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद की विषय-वस्तु प्रायः समान ही है । यहाँ वाजसनेयि-संहिता का प्रतिपाद्य प्रस्तुत हैः---

अध्याय एक और दो---इसमें दर्श (अमावास्या के बाद वाली प्रतिपदा को दर्श कहा जाता है) और पौर्णमास (पूर्णिमा) से सम्बद्ध यागों का वर्णन है ।

अध्याय तीन---इसमें अग्निहोत्र और चातुर्मास्य इष्टियों का वर्णन है । इसका अभिप्राय है--चार-चार मास पर ऋतु-परिवर्तन होने पर किए जाने वाले विशेष यज्ञ ।

अध्याय--4 से 8 तक---इनमें अग्निष्टोम और सोमयाग का वर्णन है । अग्निष्टोम ज्योतिष्टोम का परिष्कृत रूप है । यह स्वर्ग की कामना से किया जाता है । इसमें 16 पुरोहित होते हैं और यह पाँच दिन चलता है । सोमयाग में सोमरस में दूध मिलाकर आहुति दी जाती है । यह याग प्रातः मध्याह्न और सायं तीन बार होता है, अतः इसे प्रातःसवन, मध्याह्न सवन और सायं सवन कहते हैं ।

अध्याय-9 और 10---इनमें वाजपेय और राजसूय यागों का वर्णन है ।
अध्याय--11 से 18 तक--- इनमें अग्निचयन और विविध प्रकार की वेदियों  के निर्माण से सम्बद्ध मन्त्र हैं । वेदी की रचना 10,800 ईंटों से होती थी  और इनकी आकृति यज्ञ के अनुसार विभिन्न प्रकार की होती थी। कुछ वेदियाँ श्येन (गरुड) आदि पक्षियों के आकार की होती थी ।

अध्याय--19 से 21 तक---इनमें सौत्रामणि याग का विधान है । राज्य-च्युत राज इस याग को राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए करता था ।

अध्याय--22 से 25 तक---इनमें अश्वमेध-यज्ञ का विस्तृत वर्णन है । जन्तुविज्ञान की दृष्टि से ये अध्याय अतिमहत्त्वपूर्ण है । इनमें सैंकडों पक्षियों का उल्लेख हुआ है ।
अध्याय--26 से 29 तक---ये खिल अध्याय हैं ।

अध्याय-30--इसमें पुरुषमेध का वर्णन है । इसमें पूरे समाज को एक पुरुष माना गया है । इसमें 184 व्यवसायों का उल्लेख हुआ है । समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह अध्याय अति महत्त्वपूर्ण है ।

अध्याय 31--इसे पुरुष सूक्य और विष्णु सूक्त भी कहते हैं । इसमें विराट् पुरुष के स्वरूप का वर्णन है ।

अध्याय 32---इसमें विराट् पुरुष के दार्शनिक और आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन है ।

अध्याय 33-- इसमें सर्वमेध सूक्त है ।
अध्याय 34---इसके प्रारम्भ के 6 मन्त्र शिवसंकल्पसूक्त है । मनोविज्ञान की दृष्टि से ये महत्त्वपूर्ण हैं ।

अध्याय 35--इसमें पितृमेध का वर्णन है ।
अध्याय 36 से 38 तक---इनमें प्रवर्ग्यनामक यज्ञ का वर्णन है ।
अद्याय 39--इसमें अन्त्येष्टि-संस्कार से सम्बद्ध मन्त्र है । इसे प्रायश्चित्ताध्याय भी कहते हैं ।
अध्याय 40---इसके मन्त्र ईशावास्योपनिषद् में भी आए हैं । इस उपनिषद् का प्रथम स्थान प्राप्त है । इसमे अध्यात्म और दर्शन का अपूर्व वर्णन है ।

इन यागों , इष्टियों का उद्देश्य विशेष रूप है । मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन्हें किया जाता था । कुछ यज्ञ राजा की श्रीवृद्धि के लिए किया जाता था । कुछ यज्ञ ब्राह्मणों की ओजस्विता, तेजस्विता एवं मेधा-वृद्धि के लिए किया जाता था । कुछ यज्ञ सार्वजनिक उन्नति के लिए किया जाता था ।

---: कृष्णयजुर्वेद :---
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चरण व्यूह के अनुसार यजुर्वेद की 86 शाऱाएँ हैं, जिनमें से शुक्ल यजुर्वेद की 17 और शेष 69 शाखाएँ कृष्ण यजुर्वेद की हैं । कृष्ण यजुर्वेद में भी तैत्तिरीय शाखा के दो मुख्य भेद हैः--औख्य और खाण्डिकेय । खाण्डिकेय के पाँच भेद हैं--आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशि और कात्यायन । मैत्रायणी के सात भेद हैं और कठ (चरक) के 12 भेद हैं । कठ के 44 उपग्रन्थ भी हैं । सम्प्रति कृष्णयजुर्वेद की केवल चार ही शाखाएँ उपलब्ध हैंः---(1.) तैत्तिरीय, (2.) मैत्रायणी, (3.) कठ, (4.) कपिष्ठल ।

तैत्तिरीय-संहिता
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यह कृष्णयजुर्वेद की सर्वप्रमुख संहिता है । इसमें 7 काण्ड, 44 प्रपाठक और 631 अनुवाक है । अनुवाकों में भी उपभेद (खण्ड) पाए जाते हैं । जैसेः---

देवा वसव्या अग्ने सोम सूर्य ।" (तै.सं. का.2,प्र.4,अनु.8 खण्ड-1)

यही एक संहिता है, जिसके ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्बसूत्र और धर्मसूत्र सभी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । यह संहिता परिपूर्ण व सर्वांगपूर्ण है । इसी संहिता के बोधायन और आपस्तम्ब के श्रौत-गृह्य-शुल्ब-धर्मसूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । इसमें भी शुक्ल यजुर्वेद के तुल्य विविध यागों का वर्णन है ।

इसके काण्डों के अनुसार वर्ण्य-विषयः--
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(1.) काण्ड--1--दर्शमूर्णमास, अग्निष्टोम, राजसूय ।
(2.) काण्ड--2--पशुविधान, इष्टि विधान ।
(3.) काण्ड 3--पवमान ग्रह आदि, वैकृत विधि, इ,्टिहोम ।
(4.) काण्ड 4---अग्निचिति, देवयजनग्रह, चितिवर्णन, वसोर्धारा संस्कार ।
(5.) काण्ड--5--उख्य अग्नि, चितिनिरूपण, इष्टकात्रय, वायव्य पशु आदि ।
(6.) काण्ड--6--सोममन्त्रब्राह्मण ।
(7.) काण्ड --7--अश्वमेध, षड्रात्र आदि सत्रकर्म ।

इस संहिता का विशेष, प्रचार महाराष्ट्र, आन्ध्र व अन्य द. भारत में है । आचार्य सायण इसी शाखा के ब्राह्मण थे । इसलिए उन्होंने सर्वप्रथण इसी शाखा का भाष्य किया था । सायण से पूर्ववर्ती भट्ट भास्कर मिश्र (11 वीं शती) ने भी "ज्ञानयज्ञ" नामक भाष्य इस पर किया था । डॉ. कीथ ने इसका आंग्लभाषा में अनुवाद किया था ।

मैत्रायणी संहिता
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मैत्रायणीय शाखा कठ (चरक) की 12 शाखाओं में से एक है । मैत्रायणी संहिता की सात शाखाओं का उल्लेख चरण व्यूह में मिलता है । ये शाखाएँ हैं--

(1.) मानव, (2.) दुन्दुभ, (3.) ऐकेय, (4.) वाराह, (5.) हारिद्रवेय, (6.) श्याम, (7.) श्यामायनीय । इस शाखा के प्रवर्तक मैत्रायण या मैत्रेय हैः---अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दिवोदासस्य सन्ततिम् । दिवोदासस्य दायादो ब्रह्मर्षिर्मित्रयुर्नृप । मैत्रायणी ततः शाखा मैत्रेयस्तु ततः स्मृतः ।। (हरिवंश पुराण--अ. 34)

इस संहिता में मन्त्र और व्याख्या भाग (ब्राह्मण या गद्यभाग) मिश्रित है । इसमें 4 काण्ड , 54 प्रपाठक और 3144 मन्त्र हैं । इनमें से 1701 मन्त्र ऋग्वेद से उद्धृत है ।

वर्ण्य-वस्तु की दृष्टि से अन्य यजुर्वेद की शाखाओं के तुल्य इसमें भी विभिन्न यागों का वर्णन है ।
(1.) काण्ड--1---दर्शपूर्णमास, अध्वर, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य और वाजपेय याग ।
(2.) काण्ड--2---काम्य इष्टियाँ, राजसूय और अग्निचिति ।
(3.) काण्ड--3--अग्निचिति, अध्वर आदि की विधि, सौत्रामणी और अश्वमेध याग ।
(4.) काण्ड---4--- यह खिल पाठ है । इसमें राजसूय, अध्वर, प्रवर्ग्य और याज्यानुवाक ।

काठक संहिता
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इसे कठ-संहिता भी कहा जाता है । यह कठ-शाखा की संहिता है । यह चरकों की शाखा मानी जाती है । इसमें पाँच खण्ड हैः---
(1.) इठिमिका, (2.) मध्यमिका, (3.) ओरामिका, (4.) याज्यानुवाक्या, (5.) अश्वमेधादि अनुवचन ।

इसके उपखण्डों को स्थानक और अनुवचन कहा जाता है ।
इसका वर्णन इस प्रकार हैः---
खण्ड-1--इठिमिका, स्थानक 1 से 18, मन्त्र 1 से 1538
खण्ड 2---मध्यमिका, स्थानक 19 से 30, मन्त्र 1539 से 2053
खण्ड 3--ओरिमिका]
खण्ड 4--याज्यानुवाक्या]  स्थानक 31 से 40, मन्त्र 2054 से 2799
खण्ड 5--अश्वमेधादि वचन 1 से 13, मन्त्र 2800 से 3028

इस प्रकार पाँच खण्डों में 40+ वचन 13 = 53 उपखण्ड, अनुवाक 843 और 3028 मन्त्र हैं । मन्त्र और ब्राह्मणों की सम्मिलित संख्या 18 हजार है ।

काठक-संहिता में वर्णित प्रमुख 19 याग क्रमशः ये हैंः---
(1.) दर्श-पूर्णमास, (2.)  ज्योतिष्टोम, (3.) अग्निहोत्र, (4.) उपस्थान आदि कर्म, (5.) आधान, (6.) काम्य इष्टियाँ, (7.) विविध-पयस्या याग, (8.) पशुबन्ध, (9.) वाजपेय, (10.) राजसूय, (11.) अग्निचयन, (12.) पत्नीव्रत-याग, (13.) अतिरात्र आदि सत्र, (14.) एकदशिनी, (15.) प्रायश्चित्तियाँ, (16.) चातुर्मास्य, (17.) गोसव आदि याग, (18.) सौत्रामणी, (19.) अश्वमेध ।

कृष्णयजुर्वेद की चारों संहिताओं में प्रायः स्वरूप की एकता है और विविध यागों में प्रयुक्त मन्त्रों में भी बहुत साम्य है । इसका कारण यह है कि ये शाखाएँ वस्तुतः यजुर्वेद की ही शाखाएँ हैं, अतः इनमें में साम्य है ।

महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है---"ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोेच्यते ।" (महाभाष्य-4.3.101)

इससे ज्ञात होता है कि पतञ्जलि (150 ई.पू.) के समय में काठक और कलाप-शाखा का प्रचार गाँव-गाँव में था । आजकल यह शाखा लुप्तप्राय है ।

इस शाखा में उदात्त अक्षर के ऊपर ही ऊर्ध्व रेखा (स्वरित जैसा चिह्न) है । अनुदात्त और स्वरित पर कोई चिह्न नहीं है ।

कपिष्ठल (कठ) संहिता
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यह शाखा "चरणव्यूह" के अनुसार चरकों की 12 शाखाओं में से एक है । प्राचीन काल में कठों की कई शाखाएँ प्रचलित थीं, जैसे कठ, प्राच्य कठ और कपिष्ठल कठ । इस शाखा के प्रवर्तक कपष्ठल ऋषि थे । पाणिनि ने "कपिष्ठलो गोत्रे" (8.3.91) तथा दुर्गाचार्य ने निरुक्त-टीका (4.4) में  अहं च कपिष्ठलो वासिष्ठः" का उल्लेख किया है । इससे ज्ञात होता है कि ये वसिष्ठ-गोत्र के थे । विद्वानों का अनुमान है कि कुरुक्षेत्र के पास "कैथल" ग्राम कपिष्ठल का ही अपभ्रंश है और यह कपिष्ठल ऋषि का निवास स्थान था ।

डॉ. रघुवीर ने इसका एक सुन्दर संस्करण 1932 में लाहौर से प्रकाशित कराया था । यह संहिता ऋग्वेद की तरह अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है । इसमें स्वरांकन पद्धति काठक-संहिता के तुल्य है । इसके केवल 6 अष्टक उपलब्ध हैं । 48 अध्याय पर समाप्ति है । बीच में कई अध्याय सर्वथा नहीं है या अपूर्ण है । इसमें अध्याय 9 से 24, 32, 33 और 43 सर्वथा खण्डित है ।

अश्वमेधादि याग
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यजुर्वेद के कई अध्यायों में "मेध" वाले यज्ञ हैं । यथा--अश्वमेध--(22.29), पुरुषमेध या नरमेध (30.31), सर्वमेध (32.33), पितृमेध (35.29) । कतिपय भारतीय और पाश्चात्त्य विद्वानों को भ्रान्ति है कि "मेध" शब्द केवल बलि या वध का वाचक है । यह शब्द मेधृ संगमे च धातु से बना है, जिसका अर्थ है---संगम (गुणों से युक्त होना), मेधा (ज्ञानवृद्धि) और हिंसा । अतः केवल हिंसा अर्थ को लेकर सर्वत्र बलि देना अर्थ करना अज्ञानता है । कालिदास ने भी मेध शब्द का प्रयोग किया है----"प्रजायै गृहमेधिनाम्" (रघुवंश) अर्थात् सन्तान के लिए गृहमेधी (गृहस्थी) होना । गृहमेध का अर्थ घर को बलि देना अर्थ नहीं हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि मेध शब्द का प्रयोग उन्नति, प्रगति, तेजस्विता आदि के लिए होता था । यजुर्वेद में मेध शब्द का अर्थ घी, अन्न और भोज्य पदार्थ तथा पौष्टिक पदार्थ बताए गए हैं। अतः जौ, चावल और पुरोडाश को मेध बताया है ।

यजुर्वेद में अश्वमेध आदि शब्द राष्ट्रिय उन्नति और प्रगति के लिए है ।यथा पितृमेध या पितृयज्ञ का अभिप्राय है---माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा और उन्हें अन्नादि से तृप्त रखना । मेध शब्द का प्रयोग श्रीवृद्धि, समृद्धि, उन्नति आदि के लिए होता था । शतपथ और तैत्तिरीय आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में अश्वमेध की अनेक पारिभाषिक व्याखायाएँ की गई हैं ।इसके अनुसार अश्वमेध का अर्थ है--राष्ट्र की श्रीवृद्धि , राष्ट्र को धन-धान्य से समृद्ध करना, राष्ट्र को तेजस्वी ऊर्जस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनाना । इसी प्रकार पुरुषमेध (नरमेध) का अर्थ है---मनुष्य की सर्वागीण उन्नति । सर्वमेध का अर्थ है---प्रजामात्र की  सर्वतोमुखी उन्नति । अत एव गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि सर्वमेध अर्थात् सर्वजन समुन्नति के द्वारा राजा सर्वराट् (सबका अधिपति) हो जाता है । गोमेध का अभिप्राय है ---गोवंश की रक्षा करना और पशु-समृद्धि ।

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एम.डी. तिवारी

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