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Tuesday 11 August 2015

माया

✳माया

1⃣ वैदिक और पौराणिक साहित्य तथा बौद्धदर्शन में प्राप्त माया शब्द का प्रयोग देवशक्ति,प्रवंचना,प्रपञ्च,इन्द्रजाल और अविद्या आदि अर्थों में हुआ हैं।

2⃣ आचार्य शंकर ने इसे अव्यक्ता, जगदुत्पादिका तथा त्रिगुणात्मक शक्ति बताया है-

✅ अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति: अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा।
कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते।।

3⃣ माया ब्रह्म की ही शक्ति है। उससे युक्त होने पर सगुण होकर ईश्वर कहलाता है, जो इस संसार की सृष्टी करता है।

4⃣ ईश्वर की माया द्वारा निर्मित यह जगत असत् है, मिथ्या है, स्वप्नवत् है।

5⃣ ब्रह्म सत् है, पर माया ना सत् है, न असत्।

✅ सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगनात्मकं ज्ञानविरोधीभाव-रूपं यत्किंचिदिति।

6⃣ माया न तो सदा विद्यमान रहती है और न ही उसका नितांत अभाव होता है।

7⃣ इसकी विद्यमानता में रज्जु में सर्प की भांति आभास होता है और परमज्ञान के कारण उसका विनाश होता है तो, सब कुछ ब्रह्ममय हो जाता है।

8⃣ माया की दो शक्तियां है-
          ✔आवरण (तम स्वरुप)
           ✔विक्षेप (रज स्वरुप)

9⃣ शंकराचार्य विवेक चूड़ामणि में इसको बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाते है-
✅कवलितदिननाथे दुर्दिने सांद्रमेघैव्यर्थयति हिमझंझावायुरुग्रो यथैतान्।
अविरततमसात्मन्यावृते मूढबुद्धिम्
क्षपयति बहुदुःखैस्तीव्रविक्षेपशक्ति:।।

अर्थात्
जैसे दुर्दिन में सूर्य के मेघाच्छादित होने पर हिम और झंझावातों से लोग कष्टित होते है, उसी प्रकार माया अपनी शक्तियों से ब्रह्म को आच्छादित कर संसार को भ्रांत कर देती है।

❇ ऐसी माया के बंधन में बंधा व्यक्ति अलौकिक शक्ति के साक्षात्कार का आनंद लेने में अक्षम है।

❇ इस  माया से पार पाने का साधन है मन को जितना।
✔मन को आप तब जीतोगे जब आप तन को अर्थात इन्द्रियों को जीतोगे।
✔मन को आप तब जीतोगे जब आप "मैं"को जितोगे।
✔मैं को जितने का एक मात्र रास्ता है कि- आप स्वयं को जानो।
✔ स्वयं को जान ने के लिए शास्त्रों को जानो,फिर कुछ जान ने लायक नहीं बचेगा।

जय शंकर
मकरध्वज तिवारी
🙏🙏

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