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गुरू पूर्णिमा का महत्त्व

  किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च । दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥ गुरू पूर्णिमा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण आभ...

Monday 3 July 2023

गुरू पूर्णिमा का महत्त्व

 


किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।

दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥


✳गुरू पूर्णिमा

पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण आभा को धारण किये हुए समस्त जगत को आलोकित करता है, ठीक इसी प्रकार हमारे जीवन को गुरू आलोकित,प्रकाशित करते है।

गुरू ही हमारी आत्मा को प्रकशित कर,विकसित कर उसका कल्याण अर्थात भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते है।

गुरू का उपकार हमारे जीवन में इतना है की उनकी सेवा,अर्चना जितनी की जाए उतनी कम है, इसके लिए किसी दिन विशेष की आवश्यकता कदापि नहीं है, परंतु फिर भी सनातन परम्परा में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा

का पर्व मनाने का विधान है।

आज के दिन आदिगुरू भगवान् वेदव्यास का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है, अतः यह व्यास पूर्णिमा के नाम से भी प्रसिद्ध है।

🔸गुरू शब्द गु तथा रु इन दो शब्दों के योग से बना है । गु अर्थात अन्धकार व रु अर्थात प्रकाश, अतः हमारे जीवन के अन्धकार को दूर कर उसे प्रकाशित करने वाले को गुरू कहा जाता है।

❇ मनु भगवान् गुरू को परिभाषित करते हुए लिखते है-

निषेकादीनि कार्माणि य: करोति यथाविधि।

सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते। 2.142

अर्थात जो विप्र निषक(गर्भाधान)

आदि संस्कारों को यथाविधि करता है तथा अन्न आदि के द्वारा पोषण करता है वही गुरू कहलाता है...

✔इस प्रकार प्रथम गुरू पिता है तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक आदि।

🔸बालक की प्रथम गुरू उसकी माता मानी गई है, क्योंकि समस्त संस्कारों का बालक में सिंचन, पोषण माता के द्वारा ही होता है।

🔸कूर्म पुराण में गुरू पद के विभिन्न अधिकारियों की सूची प्राप्त होती है-

उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:।

मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥

बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥

मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥

श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु।

इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥ (अध्याय 11)

🔸चाणक्य ने द्विजाति का गुरू अग्नि को, समस्त वर्णों का गुरू ब्राह्मण को, स्त्री का गुरू पति को तथा सबका गुरू अथिति को बताया है-

गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:।

पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥

🔸मनुस्मृति में यथार्थ गुरू को परिभाषित करते हुए लिखा गया है-

उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:।

आचारमग्निकार्यञ्चसंध्योपासनमेब च॥

अल्पं वा बहु वा यस्त श्रुतस्योपकरोति य:।

तमपीह गुरुं विद्याच्छु तोपक्रिययातया॥

षटर्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्।

तदर्द्धिकं पादिक वा ग्रहणांतिकमेव वा॥ 2.69;2.149;3.1

'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची 'कालिकापुराण' में निम्न प्रकार दी हुई है-

अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा।

क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥

सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।

गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥ (अध्याय 54)

❇गुरू का महत्त्व

🔸गुरू की महिमा का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है, वस्तुतः गुरू का स्थान भगवान् से भी ऊपर है, तभी तो कहा गया है-

गुरुब्रह्मा गुरुविर्ष्णुः गुरुर्देवोमहेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

🔸गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज गुरू को भवसागर का उद्धारक बताते हुए लिखते है-

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।

जों बिरंचि संकर सम होई।।

🔸कबीर ने गुरू को ज्ञान तथा मोक्ष का साधन बताया है, गुरु-रहित प्राणी को वो सूकर तथा श्वान के समान बताते है-

✔बिना गुरू के गति नहीं, गुरू बिन मिले ना ज्ञान।

निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान।।

🔸सद्गुरू लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं।

✔संतजन कहते हैं-

राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरू कीन्ह।

तीन लोक के वे धनी गुरू आज्ञा आधीन॥

🔸गुरू तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- 'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु' अर्थात जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरू के लिए भी। बल्कि सद्गुरू की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरू की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

🔸प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा।

     शिक्षको बोधकश्वैव षडेते गुरवः स्मृताः॥

जो आपको प्रेरित करे, सूचित करे, पाठ करे,  मार्गदर्शन करे, शिक्षा दे और बोध कराये ये छः प्रकार के व्यक्ति भी गुरू माने गये हैं। 

🔸गुरू की महिमा अपरंपार है। वो शिष्य पर अनंत उपकार करते है। वो विषय-वासनाओं में डूबे शिष्य की बंद ऑखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे ब्रह्म का दर्शन कराते है।

गुरू मेरी पूजा,गुरू गोविन्द।

गुरू मेरा पारब्रह्म,गुरू भगवंत।।

गुरूजी के चरणों में सादर नमन...🙏🙏



तथा अनुरोध की इस मूढ़मति,अज्ञानी शिष्य पर अपनी कृपादृष्टि सदैव बनाये रखे...

आप सभी को गुरुपूर्णिमा की बधाइयाँ...💐💐

Thursday 23 November 2017

संस्कृत व्याकरण परम्परा का परिचय





                 न सोSस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमात्त्ते.
                   अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ..
                                 वाक्यपदीयकार भर्तृहरी के उपर्युक्त कथनानुसार संसार का कोई भी ज्ञान शब्द से ही प्रकाशित होता है, शब्द के बाह्य तथा अन्तः स्वरुप को समझने के लिए तत्तत् वैयाकरणो ने अनेक शब्दानुशासनों की रचना की हैं . वैयाकरण शब्द को ही नित्य एवं प्रमाण मानते हैं, अतः वैयाकरणो का अपर नाम शाब्दिक है . शब्द या वाक् के प्रथम दर्शन हमें वेद में होतें हैं, वेद सर्वज्ञानमय शास्त्र है –
                    यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः .
                    स सर्वोSभितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सा .. ( मनु स्मृति -२.७ )

              संस्कृत व्याकरणशास्त्र का आदिमूल भी वेद ही हैं. वैदिक मन्त्रों में अनेक पदों की व्युत्पत्तियाँ उपलब्ध होतीं हैं, को व्याकरण की वेदमूलकता को पुष्ट करती हैं . शब्दशास्त्र के प्रमाणभूत आचार्य पतंजलि ने व्याकरण अध्ययन के प्रयोजनों का वर्णन करतें समय ‘चत्वारि शृङ्गा:’, ‘चत्वारि वाक्’, ‘उत त्व:’, ‘सक्तुमिव’, ‘सुदेवोsसि’ ये पांच मन्त्र उद्धृत किये हैं तथा इनकी व्याख्या व्याकरणशास्त्र परक की है. यजुर्वेद में ‘व्याकरण’ पद की निरुक्ति करते हुए कहा गया है की – ‘ प्रजापति ने ही शब्दों के स्वरूप को देख कर उन्हें व्याकृत अर्थात खंड-खंड करके विवेचन किया –
                       दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत सत्यानृते प्रजापतिः ( यजुर्वेद-१९.७७)
                 व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति के विषय में स्पष्टतया कह पाना अत्यंत कठिन है, किन्तु इतना निश्चित है कि उपलब्ध वैदिक पदपाठों की रचना से पूर्व व्याकरणशास्त्र अपनी पूर्णता को प्राप्त कर चूका था तथा प्रकृति-प्रत्यय, धातु, उपसर्ग तथा समासघटित पूर्वोत्तर पदों का विभाग पूर्णतया निर्धारित हो चूका था. वाल्मीकीयरामायण से विदित होता है की रामराज्य में व्याकरणशास्त्र का सुव्यवस्थित पठन-पाठन होता था. किष्किन्धाकांड में लिखा है –
                                    नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्.
                                    बहू व्याहरतानेन न किञ्चिदपभाषितम् ..
                  महाभाष्यकार पतंजलि भी मानतें हैं की अत्यंत प्राचीनकाल में व्याकरणशास्त्र का पठन-पाठन प्रचलित था . वस्तुत त्रेतायुग के आरम्भ में व्याकरणशास्त्र ग्रन्थ के रूप में सुव्यवस्थित हो चूका था. महर्षि वेदव्यासरचित महाभारत के उद्योगपर्व में भी कहा गया है की जो पाठक शब्द के समस्त अर्थों को व्याकृत करता है उसे वैयाकरण कहतें हैं.  शब्दों को व्याकृत करने वाला शास्त्र ही व्याकरण कहलाता है –
                               सर्वार्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते .
                               तन्मूलतो व्याकरणं व्याकरोतिती तत्तथा ..        
                 महर्षि पतंजलि ने – ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोध्येयोज्ञेयश्च प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणम् . कह कर व्याकरण की अनिवार्य पठनीयता का प्रतिपादन किया है. पाणिनीयव्याकरण में निर्देशित धातु, प्रातिपदिक, आख्यात, वचन, विभक्ति, इत्यादि अनेक संज्ञाओं का संकेत गोपथ ब्राह्मण में मिलता है –
       ओंकारं पृच्छाम:, को धातुः, किं प्रातिपदिकं, किं नामाख्यातम्, किं लिङ्गं, किं वचनं, का विभक्तिः, कः प्रत्ययः, कः स्वरः, उपसर्गोनिपातः, किं वै व्याकरणं, को विकारः, को विकारी .....
                व्याकरणशास्त्र की प्राचीनता के विषय में हम कह सकतें हैं की समस्त भारतीय उत्तरवैदिक साहित्य से लेकर अधुनातन साहित्य पर्यंत व्याकरणशास्त्रों की रचना होती आई है. ऋकतंत्र में व्याकरण का प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा को बतलाया गया है. व्याकरण के एकदेश अक्षरसमाम्नाय के प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा हैं, द्वितीय प्रवक्ता बृहस्पति तथा तृतीय प्रवक्ता इंद्र हैं. इंद्र से व्याकरण परंपरा भारद्वाज तथा भारद्वाज से ब्रह्मऋषियों तक पहुची. पातंजलमहाभाष्य के अनुसार बृहस्पति ने इंद्र के लिए प्रतिपद पाठ द्वारा शब्दोपदेश किया –
       एवं हि श्रूयते – बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपरायणं प्रोवाच नान्तं जगाम. दिव्यं वर्षसहस्रमध्ययनकालो न चान्तं जगाम किम पुनरध्यत्वे. यः सर्वथा चिरं जीवति वर्षशतं जीवति.....( महाभाष्य, प्रथम अध्याय,प्रथमपाद,प्रथम अहानिक )
            अर्वाचीन वैयाकरण मुख्यरूप से इंद्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, पाणिनि, अमर तथा जैनेन्द्र इन आठ शब्दिकों का उल्लेख करतें हैं. सम्प्रति ज्ञात जितने व्याकरण प्रवक्ता हैं उन्हें हम दो भागों में विभक्त कर सकतें हैं- १. पाणिनि से प्राचीन तथा २. पाणिनि से अर्वाचीन. पाणिनि से प्राचीन आचार्यों में इंद्र, वायु, भरद्वाज, भागुरी, पौष्करसादी, काशकृत्स्न, रौडी, चारायन, माध्यन्दिनि, वैयाघ्र्यपद्य, शौनकी, गौतम, व्याडी, आपिशली, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक, तथा स्फोटायन के नाम प्रमुख हैं.  पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरणों की चर्चा हम आगे करेंगे .

              संस्कृत ब्याकरण परंपरा का सिंहावलोकन करने पर प्रतीत होता है की समग्र संस्कृत व्याकरण परंपरा पाणिनि तथा पाणिनि रचित अष्टाध्यायी के समीप ही घुमती हुई दिखाई देती है. पाणिनि संस्कृत व्याकरण परपरा के आधाररूप से प्रतिष्ठित हैं. पाणिनि के बाद कात्यायन एवं पतंजलि का नाम संस्कृत व्याकरण परंपरा में प्रतिष्ठित है.  पाणिनि, कात्यायन तथा पतंजलि ये तीनो ‘त्रिमुनि’ के रूप में पूजित तथा प्रतिष्ठित हैं, ‘यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्’ इस उक्ति के अनुसार सूत्रकार पाणिनि से वर्तिककार कात्यायन तथा कात्यायन से भाष्यकार पतञ्जलि अधिक सम्मान्य है.  आचार्य भट्टोजी दीक्षित ने वैयाकरणसिद्धांतकौमुदी के मंगलाचरण में व्याकरणशास्त्र के त्रिमुनियों को नमन किया है –
                             मुनित्रयं नमस्कृत्य तदुक्तिं परिभाव्य च .

                             वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदियं विरच्य्ते  ..

क्रमशः .........

Friday 1 January 2016

साम और अर्थव वेद

!!!---: सामवेद :---!!!
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सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं-सहस्रवर्त्मा सामवेदः। कुछ प्रमुख शाखाएँ--- असुरायणीय, वासुरायणीय, वार्तान्तरेय, प्राञ्जल, राणायनीय, शाट्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लाङ्गल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय। उपलब्ध शाखाएँ-- कौथुमीय, राणायनीय और जैमिनीय।
सामवेदः---
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चारों वेदों में सामवेद का महत्त्व सर्वाधिक है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने स्वयं को सामवेद कहा हैः--"वेदानां सामवेदोsस्मि।" वस्तुतः जो सामवेद को जानता है, वहीं वेदों के रहस्य को जान सकता हैः---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्।" (बृहद् देवता)
परिचयः--ऋग्वेद के मन्त्र (ऋक् या ऋचा) को जब विशिष्ट गान-पद्धति से गाया जाता है, तब उसे "सामन्" (साम) कहा जाता हैः--"विशिष्टा काचिद् साम्नो गीतिः सामेत्युच्यते" (पू.मी. 2.1.37,,शबर स्वामी)। पूर्वमीमांसा में ही गीति या गान को "साम" कहा गया हैः--"गीतिषु सामाख्या" (पू.मी.2.1.36)
छान्दोग्योपनिषद् (1.3.4) के अनुसार जो ऋक् है वही साम हैः--या ऋक् तत् साम" । और----"ऋचि अध्यूढं साम" (छा.उप. 1.6.1) । साम का विग्रह हैः--सा और अम। सा का अर्थ है---ऋचा और अम का अर्थ हैः--गान। दोनों मिलकर सामन् बनाः-- "सा च अमश्चेति तत् साम्नः सामत्वम्।" (बृह.उप.--1.3.22)
यजुर्वेद ने सामवेद को "प्राणतत्त्व" कहा हैः--साम प्राणं प्रपद्ये" (यजुः 36.1) "प्राणो वै साम" (श.प.ब्रा. 14.8.14.3) "स यः प्राणस्तत् साम" (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण--4.23.3)
सामवेद सूर्य का प्रतिनिधि है, अतः उसमें सौर-ऊर्जा है। जैसे सूर्य सर्वत्र समभाव से विद्यमान है, वैसे सामवेद भी समत्व के कारण सर्वत्र उपलब्ध है। सम का ही भावार्थक साम हैः---"तद्यद् एष (आदित्यः) सर्वैर्लोकैः समः तस्मादेषः (आदित्यः) एव साम।" (जै.उप.ब्रा.-1.12.5)
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं, अर्थात् सामवेद से सौर-ऊर्जा मनुष्य को प्राप्त होती हैः---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि" (श.प.ब्रा. 10.5.1.5)
सामवेद में साम (गीति) द्युलोक है और ऋक् पृथिवी हैः--"साम वा असौ (द्युः) लोकः ऋगयम् (भूलोकः)" (ताण्ड्य ब्रा.4.3.5)
सभी वेदों का सार सामवेद ही हैः--"सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम" (श.प.ब्रा. 12.8.3.23 और गो.ब्रा. 2.5.7)
साम के बिना यज्ञ अपूर्ण हैः---"नासामा यज्ञोsस्ति" (श.प.ब्रा. 1.4.1.1)
सामवेद के दो मुख्य भाग हैं---(1.) पूर्वार्चिक और (2.) उत्तरार्चिक। "आर्चिक" का अर्थ हैः--ऋचाओं का समूह।
(1.) पूर्वार्चिकः--
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इसमें चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय-काण्ड, (ख) ऐन्द्र-काण्ड, (ग) पावमान-काण्ड, और (घ) अरण्य-काण्ड। इसमें एक परिशिष्ट भी हैः--महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय है। इन 6 अध्यायों को खण्डित किया गया है, जिन्हें "दशति" कह जाता है। दशति का अर्थ दश ऋचाएँ हैं, परन्तु सर्वत्र 10 ऋचाएँ नहीं है, कहीं अधिक कहीं कम है।
(1.) अध्याय 1 आग्नेय-काण्ड है। इसमें 114 मन्त्र हैं। इसके देवता अग्नि है।
(2.) अध्याय 2 से 4 तक ऐन्द्र-काण्ड हैं। इसमें 352 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र है।
(3.) अध्याय 5 पावमान-काण्ड है। इसमें कुल 119 मन्त्र हैं। इसके देवता सोम है।
(4.) अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसमें कुल 55 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम है।
इसमें एक परिशिष्ट "महानाम्नी आर्चिक" है। इसमें 10 मन्त्र है।
इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मन्त्र हैं।
अध्याय 1 से 5 तक की ऋचाओं को "ग्राम-गान" कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि इसकी ऋचाओं का गान गाँवों में किया जाता था। अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसकी ऋचाओं का गान अरण्य (वन) में किया जाता था।
(2.) उत्तरार्चिकः---
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इसमें कुल 21 अध्याय हैं और 9 प्रपाठक हैं। इसमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें कुल 1225 मन्त्र हैं। दोनों को मिलाकर 650 और 1225 को मिलाकर सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं।
ऋग्वेद के 1771 मन्त्र सामवेद में पुनः आएँ हैं। अतः सामवेद के अपने मन्त्र केवल 104 ही है। ऋग्वेद के 1771 मन्त्रों में से 267 मन्त्र सामवेद में पुनरुक्त हैं। सामवेद के 104 मन्त्रों में से भी 5 मन्त्र पुनरुक्त हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल पुनरुक्त मन्त्र 272 हैं। इस प्रकार सामवेद के अपने मन्त्र 99 ही हैं।
शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सामवेद में एक लाख चौवालिस हजार अक्षर हैं---"चत्वारि बृहतीसहस्राणि साम्नाम्।" (श.प.ब्रा. 10.4.2.24)
सामवेद के ऋत्विक् उद्गाता हैं। इसके मुख्य ऋषि आदित्य हैं।

सामवेद की शाखाएँ---

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मुनि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएँ हैं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इन 1000 शाखाओं में 13 नाम इस समय उपलब्ध हैं---
(1.) राणायम (राणायनि) , (2.) शाट्यमुग्र्य (सात्यमुग्रि),
(3.) व्यास,, (4.) भागुरि,, (5.) औलुण्डी,, (6.) गौल्गुलवि,,
(7.) भानुमान् औपमन्यव,, (8.) काराटि (दाराल),,,
(9.) मशक गार्ग्य (गार्ग्य सावर्णि),,(10.) वार्षगव्य (वार्षगण्य),,
(11.) कुथुम (कुथुमि, कौथुमि),, (12.) शालिहोत्र, (13.) जैमिनि।
इन 13 शाखाओं के नामों में से सम्प्रति 3 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---(1.) कौथुमीय, (2.) राणायनीय और (3.) जैमिनीय।
सामवेद का अध्ययन ऋषि व्यास ने अपने शिष्य जैमिनि को कराया था। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को सामवेद पढाया। सामवेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार व विस्तार सुकर्मा ने ही किया था। सुकर्मा के दो शिष्य थे---(क) हिरण्यनाभ कौशल्य और (ख) पौष्यञ्जि। इनमें हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था। कृत ने एक महान् काम किया था। उसने सामवेद के 24 प्रकार के गान-स्वरों का प्रवर्तन किया। इसलिए उसके कई अनुयायी व शिष्य हुए। उनके शिष्य "कार्त" कहलाए। आज भी कार्त आचार्य पाये जाते हैं।
(1.) कौथुमीय (कौथुम) शाखाः--
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यह शाखा सम्प्रति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। कौथुमीय और राणायमीय शाखा दोनों में विशेष भेद नहीं है। दोनों में केवल गणना-पद्धति का अन्तर है। कौथुमीय-शाखा का विभाजन अध्याय, खण्ड और मन्त्र के रूप में है। राणायनीय-शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में है। कौथुमीय-संहिता में कुल 1875 मन्त्र हैं।
इस संहिता सूत्र "पुष्पसूत्र" है। इसका ब्राह्मण "ताण्ड्य-महाब्राह्मण" है। इसे पञ्चविंश-ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें कुल 25 अध्याय हैं, इसलिए इसका यह नाम पडा। इसका उपनिषद् "छान्दोग्योपनिषद्" है।
(2.) राणायनीय-शाखाः--
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इस शाखा में विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में हैं। इसकी एक शाखा सात्यमुग्रि है। इस शाखा का प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक है।
(3.) जैमिनीय-शाखाः---
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इस संहिता में कुल 1687 मन्त्र हैं। इसकी अवान्तर शाखा तवलकार है। इस शाखा से सम्बद्ध केनोपनिषद् है। तवलकार जैमिनि ऋषि के शिष्य थे।
सामवेद मुख्य रूप से उपासना का वेद है। इसमें मुख्य रूप से इन्द्र, अग्नि और सोम देवों की स्तुति की गई है। इसमें सोम और पवमान से सम्बद्ध मन्त्र सर्वाधिक है। सोम, सोमरस, देवता और परमात्मा का भी प्रतीक है। सोम से सौम्य की प्राप्ति होती है। सामगान भक्ति-भावना और श्रद्धा जागृत करने के लिए है।
स्वरः---
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सामवेद के मन्त्रों के ऊपर 1,2,3 संख्या लिखी जाती है, जो 1--उदात्त, 2--स्वरित और 3---अनुदात्त की पहचान है। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता, किन्तु सामवेद में उदात्त के लिए मन्त्र के ऊपर 1 लिखा जाता है। ऋक् के मन्त्र पर स्वरित वाले वर्ण पर खडी लकीर होती है, इसके लिए सामवेद में 2 लिखा जाता है। ऋक् में अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे पडी लकीर होती है, सामवेद में इसके लिए वर्ण के ऊपर 3 लिखा जाता है।ऋग्वेद में उदात्त के बाद अनुदात्त को स्वरित हो जाता है और स्वरित का चिह्न होता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्त वर्ण पर कोई चिह्न नहीं होता। इसी प्रकार सामवेद में चिह्न 2 के बाद यदि कोई अनुदात्त वर्ण है तो उस पर कोई अंक नहीं होगा और उसे खाली छोड दिया जाता है। ऐसे रिक्त वर्ण को "प्रचय" कहा जाता है। इसका उसका एक स्वर से (एकश्रुति) न ऊँचा न नीचा किया जाता है।
सात स्वर ये हैं---षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद।
ग्राम तीन हैः---मन्द्र (निम्न), मध्य (मध्यम) और तीव्र (उच्च)।
सामवेद से सम्बद्ध नारदीय-शिक्षा है।
सामविकारः---
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किसी भी ऋचा को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें विकार कहा जाता है। ये कुल विकार 6 हैं। इनमें स्तोभ मुख्य है। ये छः विकार हैं---(क) स्तोभ, (ख) विकार, (ग) विश्लेषण, (घ) विकर्षण, (ङ) अभ्यास, (च) विराम।
सामगान के 4 भेदः---
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(1.) ग्राम-गेय-गानः--इसे प्रकृतिगान और वेयगान भी कहा जाता है। यह गाँव में सार्वजनिक स्थलों पर गाया जाता था।
(2.) आरण्यगानः--इसे वनों में गाया जाता था। इसे रहस्यगान भी कहा जाता है।
(3.) ऊहगानः--इसका अर्थ है विचार पूर्वक विन्यास करना। पूर्वार्चिक से सम्बन्धित उत्तार्चिक के मन्त्रों का गान इस विधि से किया जाता था। इसे सोमयाग व विशेष धार्मिक अवसर पर गाया जाता था।
(4.) ऊह्य-गानः--इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। रहस्यात्मक होने के कारण इसे साधारण लोगों में नहीं गाया जाता था। ऊहगान और ऊह्यगान विकार गान है।
शस्त्रः---
सामवेद में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय है कि गान-रहित मन्त्रों के द्वारा सम्पादित स्तुति को "शस्त्र" कहा जाता है। इसी कारण ऋग्वेद के स्तुति-मन्त्र को "शस्त्र" कहा जाता है।
स्तोत्रः---
इसके विपरीत गान युक्त मन्त्रों द्वारा सम्पादित स्तुति को "स्तोत्र" कहा जाता है। सामवेद के मन्त्र "स्तोत्र" है, क्योंकि वे गेय हैं, जबकि ऋग्वेद के मन्त्र "शस्त्र" हैं।
स्तोमः--तृक् (तीन ऋचा वाले सूक्त) रूपी स्तोत्रों को जब आवृत्ति पूर्वक गान किया जाता है, तो "स्तोम" कहा जाता है।
विष्टुतिः---
विष्टुति का अर्थ है----विशेष प्रकार की स्तुति। विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है। इसे गान के तीन पर्याय या क्रम समझना चाहिए। स्तोम के 9 भेद हैः--त्रिवृत् , पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, चतुर्विंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुश्चत्वारिंश, अष्टचत्वारिंश।
सामगान की पाँच भक्तियाँ----
(1.) प्रस्ताव, (2.) उद्गीथ, (3.) प्रतिहार, (4.) उपद्रव और (5.) निधन। वरदराज का कहना है कि इन पाँचों में हिंकार और ओंकार जोड देने से 7 हो जाती हैं। इन मन्त्रों का गान तीन प्रकार के ऋत्विक् करते हैं---(1.) प्रस्तोता, (2.) उद्गाता और (3.) प्रतिहर्ता।
!!!---: अथर्ववेद :---!!!
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अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं-नवधाथर्वणो वेदः--- पैप्लाद, शौनक, मौद, स्तौद, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श और चारणवैद्य। उपलब्ध शाखाएँ-- पैप्लाद और शौनक।
!!---: अथर्ववेद-परिचयः :---!!!
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अथर्वः--अर्थ
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"अथर्व" शब्द का अर्थ सामान्य रूप से स्थिरता होता है, चंचलता-रहित। निरुक्त के अनुसार अथर्व शब्द में "थर्व" धातु है, जिसका अर्थ है--गति या चेष्टा। इस प्रकार अथर्वन् का अर्थ हुआ गतिहीन या स्थिर। इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोsथर्वणवन्तः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः।" (निरुक्तः--11.18)
गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार अथर्वन् (अथर्वा) शब्द "अथर्वाक्" का संक्षिप्त रूप है। अथ+अर्वाक्=अथर्वा। तदनुसार अर्थ हुआ--समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश देता हैः--"अथ अर्वाग् एनं....अन्विच्छेति, तद् यद् अब्रवीद् अथार्वाङ् एनमेतासु अप्सु अन्विच्छेति तदथर्वाsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः-1.4) अथर्ववेद में ऐसे अनेक सूक्त हैं, जिनमें आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या का उपदेश किया गया है।
अथर्ववेद का दार्शनिक रूपः---
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शतपथ-ब्राह्मण (6.4.2.2) के अनुसार अथर्वा प्राण हैः--"प्राणोsथर्वा।" इसका अभिप्राय है कि प्राणशक्ति को प्रबुद्ध करना और प्राणायाम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति करना।
गोपथ-ब्राह्मण (1.4) के अनुसार आत्मा-तत्त्व को अपने अन्दर देखने की बात कही गई है। उसे प्राप्त करना अथर्वा का लक्ष्य है। अथर्ववेद "चान्द्र-वेद" है। इसका सम्बन्ध चन्द्रमा से है। चन्द्रमा की विशेषता ज्योति और शीतलता प्रदान करना है। अथर्ववेद ठीक यही काम करता है। ऋग्वेद आग्नेय-प्रधान है, तो अथर्ववेद सोम-प्रधान (सोम-तत्त्व-प्रधान) है। यदि ऋग्वेद ऊष्मा, प्रगति और स्फूर्ति देता है तो अथर्ववेद शान्ति, सामंजस्य, सद्भावना औस सोमीय गुणों का आधान करता है, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति हो सके।

अथर्ववेद के अन्य नामः--
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(1.) अथर्ववेदः--
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अथर्वन् ऋषि के नाम पर इस वेद काम "अथर्वा" पडा। इस वेद अथर्वा ऋषि और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन हैः--स आथर्वणो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.5)
(2.) आङ्गिरस वेदः--
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अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट होने के कारण इस वेद का नाम "आङ्गिरस" वेद नाम पडा---स आङ्गिरसो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मण--1.8) और (शतपथ-ब्राह्मणः--13.4.3.8)
(3.) अथर्वाङ्गिरस वेदः---
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यह प्राचीन नाम है। इस वेद अथर्वा और अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा सर्वाधिक दृष्ट मन्त्रों का संकलन है। अतः इस वेद का नाम "अथर्वाङ्गिरस-वेद" नाम पडाः--अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।" (अथर्ववेदः--10.7.20)
(4.) ब्रह्मवेदः---
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इसका एक प्राचीन नाम ब्रह्मवेद भी है। अथर्ववेद में ही इसे ब्रह्मवेद भी कहा गया हैः--"तमृचश्च सामानि च यजूंषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।" (अथर्ववेदः--15.5.6) गोपथ-ब्राह्मण (1.2.16) में भी इसे ब्रह्मवेद कहा गया हैः--"ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति।"
(5.) भृग्वङ्गिरो वेदः---
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ग्वङ्गिराः और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट अनेक मन्त्र इस वेद में है। इसलिए उनके नाम पर इस वेद का नाम "भृग्वङ्गिरो वेद" नाम पडाः--"ब्रह्मा भृग्वङ्गिरोवित्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.3.1)
(6.) क्षत्रवेदः---
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शतपथ-ब्राह्मण (14.8.14.2 से 4 तक) में इस वेद को "क्षत्रवेद" कहा गया हैः--"उक्थं यजुः...साम...क्षत्रं वेद।" इस वेद में राजाओं और क्षत्रियों का विशेषतया वर्णन है।
(7.) भेषज्य वेदः---
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इस वेद में आयुर्वेद, चिकित्सा एवं ओषधियों आदि का विस्तृत वर्णन है, अतः इसे "भैषज्य-वेद" कहा गया हैः--"ऋचः सामानि भेषजा। यजूंषि।" (अथर्ववेदः---11.6.14) यहाँ इसे भेषजा (भेषजानि) कहा गया है।
(8.) छन्दो वेदः---
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अथर्ववेद का एक प्राचीन नाम "छन्दोवेद" या "छान्दस्" है। छन्द-प्रधान होने के कारण इसका यह नाम दिया गया हैः---"(क) ऋचः सामानि छन्दांसि...यजुषा सह।" (अथर्ववेदः--11.7.24) (ख) "छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्..." (ऋग्वेदः--10.90.9) और यजुर्वेदः--31.7)
(9.) महीवेदः--
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अथर्ववेद में इसका एक नाम "महीवेद" भी प्राप्त होता है। इसमें महती ब्रह्मविद्या का वर्णन किया गया है या इसमें मही-सूक्त है। मही पृथिवी को कहा जाता हैः--ऋचः साम यजुर्मही। (अथर्ववेदः--10.7.14)। इसमें पृथिवी को मही माता कहा गया हैः--"माता भूमिः पुत्रोsहं पृथिव्याः।"
शाखाएँः---
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महाभाष्य के पस्पशाह्निक में मुनि पतञ्जलि ने अथर्ववेद की 9 शाखाएं बताई हैं---"नवधाssथर्वणो वेदः"। ये 9 शाखाएँ हैः---(1.) पैप्लाद, (2.) तौद, (3.) मौद, (4.) शौनकीय, (5.) जाजल, (6.) जलद, (7.) ब्रह्मवद, (8.) देवदर्श और (9.) चारणवैद्य। आथर्वण-परिशिष्ट और चरणव्यूह में तौद के स्थान पर स्तौद नाम है। इन 9 शाखाओं में सम्प्रति केवल 2 शाखाएँ उपलब्ध हैं---(1.) शौनकीय ऍर (2.) पैप्लाद।
वेद व्यास ने अपने शिष्य सुमन्तु को अथर्ववेद का अध्ययन कराया था। सुमन्तु को "दारुण-मुनि" भी कहा जाता है। सुमन्तु का शिष्य कबन्ध था। उसके दो अन्य शिष्य थेः---पथ्य और वेददर्श। कहीं-कहीं वेददर्श के स्थान पर देवदर्श नाम प्राप्त होता है। महानारायणीयोपनिषद् इसी देवदर्शी नामक शाखा से सम्बन्धित है। पथ्य के तीन शिष्य थेः--जाजलि, कुमुद और शौनक। दूसरी ओर देवदर्श की चार शिष्य थेः--मोद, ब्रह्मबलि, पिप्पलाद और शौष्कायनि (शौक्लायनि) । इनमें शौनक के शिष्य बभ्रु तथा सैन्धवायन बताये जाते हैं। इन दोनों शिष्यों ने अथर्ववेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। इसी कारण इनके गुरु शौनक की शाखा सुरक्षित रही।
(1.) शौनकीय-शाखाः--
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सम्प्रति प्रचलित अथर्ववेद "शौनकीय-शाखा" ही है। इस संहिता में 20 काण्ड, 730 सूक्त और 5987 मन्त्र हैं। इसका सबसे बडा काण्ड 20 वाँ काण्ड है, जिसमें 958 मन्त्र है। इसका सबसे छोटा काण्ड 17 वाँ काण्ड है, जिसमें केवल 30 मन्त्र हैं। इस वेद में गद्य और पद्य दोनों प्रकार के मन्त्र हैं। इसी वेद पर ब्राह्मण "गोपथ-ब्राह्मण" उपलब्ध है।
(2.) पैप्पलाद-शाखाः---
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इस शाखा का प्रचार काश्मीर में अधिक है। यह संहिता अपूर्ण है। भाष्यकार पतञ्जलि इसी शाखा को मानने वाले थे। इसीलिए महाभाष्य के प्रारम्भ में अथर्ववेद का प्रथम मन्त्र "ओम् शन्नो देवीरभिष्टय..." दिया है। शौनकीय-शाखा में इस मन्त्र का स्थान हैः--1.6.1, जबकि अथर्ववेद (शौनक) का प्रथम मन्त्र हैः--"ये त्रिषप्ताः परियन्ति...."।
इस प्रमाण से पता चलता है कि महर्षि पतञ्जलि के समय सम्पूर्ण पैप्पलाद-संहिता उपलब्ध थी। पिप्पलाद ऋषि बहुत बडे विद्वान् ऋषि थे। इनके पास सुकेशा, भारद्वाजादि छः ऋषि समित्पाणि होकर आत्मविद्या (ब्रह्मविद्या) सीखने आये थे। इनका विशेष उल्लेख प्रश्नोपनिषद् में मिलता है। इस शाखा में भी 20 काण्ड ही है। इसके ब्राह्मण में आठ अध्याय हैं। इस शाखा की प्रति सम्प्रति काश्मीर की शारदा लिपि में उपलब्ध है।
उपवेदः---
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अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद माना जाता है। गोपथ-ब्राह्मण (1.1.10) के अनुसार अथर्ववेद के पाँच उपवेद हैः---"पञ्च वेदान् निरमिमीत--सर्पवेदम्, पिशाचवेदम्, असुरवेदम्, इतिहासवेदम्, पुराणवेदमिति।"
अथर्ववेद का मुख्य ऋषि अङ्गिरा हैं। इस वेद का अध्वर्यु ब्रह्मा है।
यज्ञ में ब्रह्मा का महत्त्वः---ऋग्वेद में चार ऋत्विजों में ब्रह्मा को मब्रह्मविद्या के उपदेशार्थ प्रतिष्ठित किया गया हैः--"ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याम्...।" (ऋग्वेदः--10.71.11) चारों वेदों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि ब्रह्मा के बिना यज्ञ संभव हो। यज्ञ ही ऋग्वेद का आधार है। ब्रह्मा के लिए अथर्ववेदवित् होना अनिवार्य है। इस प्रकार यज्ञ और ब्रह्मा परस्पर अनुस्यूत हैं। जहाँ ब्रह्मा है, वहाँ अथर्ववेद भी है।
अथर्ववेद के सूक्तः---
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अथर्ववेद में अनेक प्रसिद्ध सूक्त हैं, जिनके यहाँ नाममात्र दिये जा रहे हैंः---
(1.) पृथिवी-सूक्त (भूमि-सूक्त)-12.1, (2.) ब्रह्मचर्य-सूक्त---(11.5), (3.) काल-सूक्त---(11.53 और 54), (4.) विवाह-सूक्त--(14 वाँ काण्ड) (5.) व्रात्य-सूक्त--(15 वाँ काण्ड--सूक्त 1 से 18), (6.) मधुविद्या-सूक्त---काण्ड 9 सूक्त 1), (7.) ब्रह्मविद्या-सूक्त--अनेक स्थल पर उपलब्ध है।

एम.डी. तिवारी