किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
गुरू पूर्णिमा
पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण आभा को धारण किये हुए समस्त जगत को आलोकित करता है, ठीक इसी प्रकार हमारे जीवन को गुरू आलोकित,प्रकाशित करते है।
गुरू ही हमारी आत्मा को प्रकशित कर,विकसित कर उसका कल्याण अर्थात भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते है।
गुरू का उपकार हमारे जीवन में इतना है की उनकी सेवा,अर्चना जितनी की जाए उतनी कम है, इसके लिए किसी दिन विशेष की आवश्यकता कदापि नहीं है, परंतु फिर भी सनातन परम्परा में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा
का पर्व मनाने का विधान है।
आज के दिन आदिगुरू भगवान् वेदव्यास का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है, अतः यह व्यास पूर्णिमा के नाम से भी प्रसिद्ध है।
गुरू शब्द गु तथा रु इन दो शब्दों के योग से बना है । गु अर्थात अन्धकार व रु अर्थात प्रकाश, अतः हमारे जीवन के अन्धकार को दूर कर उसे प्रकाशित करने वाले को गुरू कहा जाता है।
मनु भगवान् गुरू को परिभाषित करते हुए लिखते है-
निषेकादीनि कार्माणि य: करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते। 2.142
अर्थात जो विप्र निषक(गर्भाधान)
आदि संस्कारों को यथाविधि करता है तथा अन्न आदि के द्वारा पोषण करता है वही गुरू कहलाता है...
इस प्रकार प्रथम गुरू पिता है तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक आदि।
बालक की प्रथम गुरू उसकी माता मानी गई है, क्योंकि समस्त संस्कारों का बालक में सिंचन, पोषण माता के द्वारा ही होता है।
कूर्म पुराण में गुरू पद के विभिन्न अधिकारियों की सूची प्राप्त होती है-
उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपति:।
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥
बंधुर्ज्येष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरव: स्मृता:॥
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रीषु।
इत्युत्को गुरुवर्गोयं मातृत: पितृतो द्विजा:॥ (अध्याय 11)
चाणक्य ने द्विजाति का गुरू अग्नि को, समस्त वर्णों का गुरू ब्राह्मण को, स्त्री का गुरू पति को तथा सबका गुरू अथिति को बताया है-
गुरुग्निद्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु:।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥
मनुस्मृति में यथार्थ गुरू को परिभाषित करते हुए लिखा गया है-
उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादित:।
आचारमग्निकार्यञ्चसंध्योपासनमेब च॥
अल्पं वा बहु वा यस्त श्रुतस्योपकरोति य:।
तमपीह गुरुं विद्याच्छु तोपक्रिययातया॥
षटर्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्।
तदर्द्धिकं पादिक वा ग्रहणांतिकमेव वा॥ 2.69;2.149;3.1
'गुरुत्व' के लिए वर्जित पुरुषों की सूची 'कालिकापुराण' में निम्न प्रकार दी हुई है-
अभिशप्तमपुत्रच्ञ सन्नद्धं कितवं तथा।
क्रियाहीनं कल्पाग्ड़ वामनं गुरुनिन्दकम्॥
सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुंत्रेषु वर्जयेत।
गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात मूलशद्धौ सदा शुभम्॥ (अध्याय 54)
गुरू का महत्त्व
गुरू की महिमा का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है, वस्तुतः गुरू का स्थान भगवान् से भी ऊपर है, तभी तो कहा गया है-
गुरुब्रह्मा गुरुविर्ष्णुः गुरुर्देवोमहेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज गुरू को भवसागर का उद्धारक बताते हुए लिखते है-
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
कबीर ने गुरू को ज्ञान तथा मोक्ष का साधन बताया है, गुरु-रहित प्राणी को वो सूकर तथा श्वान के समान बताते है-
बिना गुरू के गति नहीं, गुरू बिन मिले ना ज्ञान।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान।।
सद्गुरू लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं।
संतजन कहते हैं-
राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरू कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरू आज्ञा आधीन॥
गुरू तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- 'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु' अर्थात जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरू के लिए भी। बल्कि सद्गुरू की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरू की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा।
शिक्षको बोधकश्वैव षडेते गुरवः स्मृताः॥
जो आपको प्रेरित करे, सूचित करे, पाठ करे, मार्गदर्शन करे, शिक्षा दे और बोध कराये ये छः प्रकार के व्यक्ति भी गुरू माने गये हैं।
गुरू की महिमा अपरंपार है। वो शिष्य पर अनंत उपकार करते है। वो विषय-वासनाओं में डूबे शिष्य की बंद ऑखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे ब्रह्म का दर्शन कराते है।
गुरू मेरी पूजा,गुरू गोविन्द।
गुरू मेरा पारब्रह्म,गुरू भगवंत।।
गुरूजी के चरणों में सादर नमन...
तथा अनुरोध की इस मूढ़मति,अज्ञानी शिष्य पर अपनी कृपादृष्टि सदैव बनाये रखे...
आप सभी को गुरुपूर्णिमा की बधाइयाँ...
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