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गुरू पूर्णिमा का महत्त्व

  किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च । दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥ गुरू पूर्णिमा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण आभ...

Friday 1 January 2016

साम और अर्थव वेद

!!!---: सामवेद :---!!!
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सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं-सहस्रवर्त्मा सामवेदः। कुछ प्रमुख शाखाएँ--- असुरायणीय, वासुरायणीय, वार्तान्तरेय, प्राञ्जल, राणायनीय, शाट्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लाङ्गल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय। उपलब्ध शाखाएँ-- कौथुमीय, राणायनीय और जैमिनीय।
सामवेदः---
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चारों वेदों में सामवेद का महत्त्व सर्वाधिक है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने स्वयं को सामवेद कहा हैः--"वेदानां सामवेदोsस्मि।" वस्तुतः जो सामवेद को जानता है, वहीं वेदों के रहस्य को जान सकता हैः---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्।" (बृहद् देवता)
परिचयः--ऋग्वेद के मन्त्र (ऋक् या ऋचा) को जब विशिष्ट गान-पद्धति से गाया जाता है, तब उसे "सामन्" (साम) कहा जाता हैः--"विशिष्टा काचिद् साम्नो गीतिः सामेत्युच्यते" (पू.मी. 2.1.37,,शबर स्वामी)। पूर्वमीमांसा में ही गीति या गान को "साम" कहा गया हैः--"गीतिषु सामाख्या" (पू.मी.2.1.36)
छान्दोग्योपनिषद् (1.3.4) के अनुसार जो ऋक् है वही साम हैः--या ऋक् तत् साम" । और----"ऋचि अध्यूढं साम" (छा.उप. 1.6.1) । साम का विग्रह हैः--सा और अम। सा का अर्थ है---ऋचा और अम का अर्थ हैः--गान। दोनों मिलकर सामन् बनाः-- "सा च अमश्चेति तत् साम्नः सामत्वम्।" (बृह.उप.--1.3.22)
यजुर्वेद ने सामवेद को "प्राणतत्त्व" कहा हैः--साम प्राणं प्रपद्ये" (यजुः 36.1) "प्राणो वै साम" (श.प.ब्रा. 14.8.14.3) "स यः प्राणस्तत् साम" (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण--4.23.3)
सामवेद सूर्य का प्रतिनिधि है, अतः उसमें सौर-ऊर्जा है। जैसे सूर्य सर्वत्र समभाव से विद्यमान है, वैसे सामवेद भी समत्व के कारण सर्वत्र उपलब्ध है। सम का ही भावार्थक साम हैः---"तद्यद् एष (आदित्यः) सर्वैर्लोकैः समः तस्मादेषः (आदित्यः) एव साम।" (जै.उप.ब्रा.-1.12.5)
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं, अर्थात् सामवेद से सौर-ऊर्जा मनुष्य को प्राप्त होती हैः---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि" (श.प.ब्रा. 10.5.1.5)
सामवेद में साम (गीति) द्युलोक है और ऋक् पृथिवी हैः--"साम वा असौ (द्युः) लोकः ऋगयम् (भूलोकः)" (ताण्ड्य ब्रा.4.3.5)
सभी वेदों का सार सामवेद ही हैः--"सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम" (श.प.ब्रा. 12.8.3.23 और गो.ब्रा. 2.5.7)
साम के बिना यज्ञ अपूर्ण हैः---"नासामा यज्ञोsस्ति" (श.प.ब्रा. 1.4.1.1)
सामवेद के दो मुख्य भाग हैं---(1.) पूर्वार्चिक और (2.) उत्तरार्चिक। "आर्चिक" का अर्थ हैः--ऋचाओं का समूह।
(1.) पूर्वार्चिकः--
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इसमें चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय-काण्ड, (ख) ऐन्द्र-काण्ड, (ग) पावमान-काण्ड, और (घ) अरण्य-काण्ड। इसमें एक परिशिष्ट भी हैः--महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय है। इन 6 अध्यायों को खण्डित किया गया है, जिन्हें "दशति" कह जाता है। दशति का अर्थ दश ऋचाएँ हैं, परन्तु सर्वत्र 10 ऋचाएँ नहीं है, कहीं अधिक कहीं कम है।
(1.) अध्याय 1 आग्नेय-काण्ड है। इसमें 114 मन्त्र हैं। इसके देवता अग्नि है।
(2.) अध्याय 2 से 4 तक ऐन्द्र-काण्ड हैं। इसमें 352 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र है।
(3.) अध्याय 5 पावमान-काण्ड है। इसमें कुल 119 मन्त्र हैं। इसके देवता सोम है।
(4.) अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसमें कुल 55 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम है।
इसमें एक परिशिष्ट "महानाम्नी आर्चिक" है। इसमें 10 मन्त्र है।
इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मन्त्र हैं।
अध्याय 1 से 5 तक की ऋचाओं को "ग्राम-गान" कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि इसकी ऋचाओं का गान गाँवों में किया जाता था। अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसकी ऋचाओं का गान अरण्य (वन) में किया जाता था।
(2.) उत्तरार्चिकः---
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इसमें कुल 21 अध्याय हैं और 9 प्रपाठक हैं। इसमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें कुल 1225 मन्त्र हैं। दोनों को मिलाकर 650 और 1225 को मिलाकर सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं।
ऋग्वेद के 1771 मन्त्र सामवेद में पुनः आएँ हैं। अतः सामवेद के अपने मन्त्र केवल 104 ही है। ऋग्वेद के 1771 मन्त्रों में से 267 मन्त्र सामवेद में पुनरुक्त हैं। सामवेद के 104 मन्त्रों में से भी 5 मन्त्र पुनरुक्त हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल पुनरुक्त मन्त्र 272 हैं। इस प्रकार सामवेद के अपने मन्त्र 99 ही हैं।
शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सामवेद में एक लाख चौवालिस हजार अक्षर हैं---"चत्वारि बृहतीसहस्राणि साम्नाम्।" (श.प.ब्रा. 10.4.2.24)
सामवेद के ऋत्विक् उद्गाता हैं। इसके मुख्य ऋषि आदित्य हैं।

सामवेद की शाखाएँ---

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मुनि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएँ हैं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इन 1000 शाखाओं में 13 नाम इस समय उपलब्ध हैं---
(1.) राणायम (राणायनि) , (2.) शाट्यमुग्र्य (सात्यमुग्रि),
(3.) व्यास,, (4.) भागुरि,, (5.) औलुण्डी,, (6.) गौल्गुलवि,,
(7.) भानुमान् औपमन्यव,, (8.) काराटि (दाराल),,,
(9.) मशक गार्ग्य (गार्ग्य सावर्णि),,(10.) वार्षगव्य (वार्षगण्य),,
(11.) कुथुम (कुथुमि, कौथुमि),, (12.) शालिहोत्र, (13.) जैमिनि।
इन 13 शाखाओं के नामों में से सम्प्रति 3 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---(1.) कौथुमीय, (2.) राणायनीय और (3.) जैमिनीय।
सामवेद का अध्ययन ऋषि व्यास ने अपने शिष्य जैमिनि को कराया था। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को सामवेद पढाया। सामवेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार व विस्तार सुकर्मा ने ही किया था। सुकर्मा के दो शिष्य थे---(क) हिरण्यनाभ कौशल्य और (ख) पौष्यञ्जि। इनमें हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था। कृत ने एक महान् काम किया था। उसने सामवेद के 24 प्रकार के गान-स्वरों का प्रवर्तन किया। इसलिए उसके कई अनुयायी व शिष्य हुए। उनके शिष्य "कार्त" कहलाए। आज भी कार्त आचार्य पाये जाते हैं।
(1.) कौथुमीय (कौथुम) शाखाः--
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यह शाखा सम्प्रति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। कौथुमीय और राणायमीय शाखा दोनों में विशेष भेद नहीं है। दोनों में केवल गणना-पद्धति का अन्तर है। कौथुमीय-शाखा का विभाजन अध्याय, खण्ड और मन्त्र के रूप में है। राणायनीय-शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में है। कौथुमीय-संहिता में कुल 1875 मन्त्र हैं।
इस संहिता सूत्र "पुष्पसूत्र" है। इसका ब्राह्मण "ताण्ड्य-महाब्राह्मण" है। इसे पञ्चविंश-ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें कुल 25 अध्याय हैं, इसलिए इसका यह नाम पडा। इसका उपनिषद् "छान्दोग्योपनिषद्" है।
(2.) राणायनीय-शाखाः--
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इस शाखा में विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में हैं। इसकी एक शाखा सात्यमुग्रि है। इस शाखा का प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक है।
(3.) जैमिनीय-शाखाः---
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इस संहिता में कुल 1687 मन्त्र हैं। इसकी अवान्तर शाखा तवलकार है। इस शाखा से सम्बद्ध केनोपनिषद् है। तवलकार जैमिनि ऋषि के शिष्य थे।
सामवेद मुख्य रूप से उपासना का वेद है। इसमें मुख्य रूप से इन्द्र, अग्नि और सोम देवों की स्तुति की गई है। इसमें सोम और पवमान से सम्बद्ध मन्त्र सर्वाधिक है। सोम, सोमरस, देवता और परमात्मा का भी प्रतीक है। सोम से सौम्य की प्राप्ति होती है। सामगान भक्ति-भावना और श्रद्धा जागृत करने के लिए है।
स्वरः---
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सामवेद के मन्त्रों के ऊपर 1,2,3 संख्या लिखी जाती है, जो 1--उदात्त, 2--स्वरित और 3---अनुदात्त की पहचान है। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता, किन्तु सामवेद में उदात्त के लिए मन्त्र के ऊपर 1 लिखा जाता है। ऋक् के मन्त्र पर स्वरित वाले वर्ण पर खडी लकीर होती है, इसके लिए सामवेद में 2 लिखा जाता है। ऋक् में अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे पडी लकीर होती है, सामवेद में इसके लिए वर्ण के ऊपर 3 लिखा जाता है।ऋग्वेद में उदात्त के बाद अनुदात्त को स्वरित हो जाता है और स्वरित का चिह्न होता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्त वर्ण पर कोई चिह्न नहीं होता। इसी प्रकार सामवेद में चिह्न 2 के बाद यदि कोई अनुदात्त वर्ण है तो उस पर कोई अंक नहीं होगा और उसे खाली छोड दिया जाता है। ऐसे रिक्त वर्ण को "प्रचय" कहा जाता है। इसका उसका एक स्वर से (एकश्रुति) न ऊँचा न नीचा किया जाता है।
सात स्वर ये हैं---षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद।
ग्राम तीन हैः---मन्द्र (निम्न), मध्य (मध्यम) और तीव्र (उच्च)।
सामवेद से सम्बद्ध नारदीय-शिक्षा है।
सामविकारः---
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किसी भी ऋचा को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें विकार कहा जाता है। ये कुल विकार 6 हैं। इनमें स्तोभ मुख्य है। ये छः विकार हैं---(क) स्तोभ, (ख) विकार, (ग) विश्लेषण, (घ) विकर्षण, (ङ) अभ्यास, (च) विराम।
सामगान के 4 भेदः---
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(1.) ग्राम-गेय-गानः--इसे प्रकृतिगान और वेयगान भी कहा जाता है। यह गाँव में सार्वजनिक स्थलों पर गाया जाता था।
(2.) आरण्यगानः--इसे वनों में गाया जाता था। इसे रहस्यगान भी कहा जाता है।
(3.) ऊहगानः--इसका अर्थ है विचार पूर्वक विन्यास करना। पूर्वार्चिक से सम्बन्धित उत्तार्चिक के मन्त्रों का गान इस विधि से किया जाता था। इसे सोमयाग व विशेष धार्मिक अवसर पर गाया जाता था।
(4.) ऊह्य-गानः--इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। रहस्यात्मक होने के कारण इसे साधारण लोगों में नहीं गाया जाता था। ऊहगान और ऊह्यगान विकार गान है।
शस्त्रः---
सामवेद में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय है कि गान-रहित मन्त्रों के द्वारा सम्पादित स्तुति को "शस्त्र" कहा जाता है। इसी कारण ऋग्वेद के स्तुति-मन्त्र को "शस्त्र" कहा जाता है।
स्तोत्रः---
इसके विपरीत गान युक्त मन्त्रों द्वारा सम्पादित स्तुति को "स्तोत्र" कहा जाता है। सामवेद के मन्त्र "स्तोत्र" है, क्योंकि वे गेय हैं, जबकि ऋग्वेद के मन्त्र "शस्त्र" हैं।
स्तोमः--तृक् (तीन ऋचा वाले सूक्त) रूपी स्तोत्रों को जब आवृत्ति पूर्वक गान किया जाता है, तो "स्तोम" कहा जाता है।
विष्टुतिः---
विष्टुति का अर्थ है----विशेष प्रकार की स्तुति। विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है। इसे गान के तीन पर्याय या क्रम समझना चाहिए। स्तोम के 9 भेद हैः--त्रिवृत् , पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, चतुर्विंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुश्चत्वारिंश, अष्टचत्वारिंश।
सामगान की पाँच भक्तियाँ----
(1.) प्रस्ताव, (2.) उद्गीथ, (3.) प्रतिहार, (4.) उपद्रव और (5.) निधन। वरदराज का कहना है कि इन पाँचों में हिंकार और ओंकार जोड देने से 7 हो जाती हैं। इन मन्त्रों का गान तीन प्रकार के ऋत्विक् करते हैं---(1.) प्रस्तोता, (2.) उद्गाता और (3.) प्रतिहर्ता।
!!!---: अथर्ववेद :---!!!
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अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं-नवधाथर्वणो वेदः--- पैप्लाद, शौनक, मौद, स्तौद, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श और चारणवैद्य। उपलब्ध शाखाएँ-- पैप्लाद और शौनक।
!!---: अथर्ववेद-परिचयः :---!!!
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अथर्वः--अर्थ
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"अथर्व" शब्द का अर्थ सामान्य रूप से स्थिरता होता है, चंचलता-रहित। निरुक्त के अनुसार अथर्व शब्द में "थर्व" धातु है, जिसका अर्थ है--गति या चेष्टा। इस प्रकार अथर्वन् का अर्थ हुआ गतिहीन या स्थिर। इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोsथर्वणवन्तः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः।" (निरुक्तः--11.18)
गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार अथर्वन् (अथर्वा) शब्द "अथर्वाक्" का संक्षिप्त रूप है। अथ+अर्वाक्=अथर्वा। तदनुसार अर्थ हुआ--समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश देता हैः--"अथ अर्वाग् एनं....अन्विच्छेति, तद् यद् अब्रवीद् अथार्वाङ् एनमेतासु अप्सु अन्विच्छेति तदथर्वाsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः-1.4) अथर्ववेद में ऐसे अनेक सूक्त हैं, जिनमें आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या का उपदेश किया गया है।
अथर्ववेद का दार्शनिक रूपः---
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शतपथ-ब्राह्मण (6.4.2.2) के अनुसार अथर्वा प्राण हैः--"प्राणोsथर्वा।" इसका अभिप्राय है कि प्राणशक्ति को प्रबुद्ध करना और प्राणायाम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति करना।
गोपथ-ब्राह्मण (1.4) के अनुसार आत्मा-तत्त्व को अपने अन्दर देखने की बात कही गई है। उसे प्राप्त करना अथर्वा का लक्ष्य है। अथर्ववेद "चान्द्र-वेद" है। इसका सम्बन्ध चन्द्रमा से है। चन्द्रमा की विशेषता ज्योति और शीतलता प्रदान करना है। अथर्ववेद ठीक यही काम करता है। ऋग्वेद आग्नेय-प्रधान है, तो अथर्ववेद सोम-प्रधान (सोम-तत्त्व-प्रधान) है। यदि ऋग्वेद ऊष्मा, प्रगति और स्फूर्ति देता है तो अथर्ववेद शान्ति, सामंजस्य, सद्भावना औस सोमीय गुणों का आधान करता है, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति हो सके।

अथर्ववेद के अन्य नामः--
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(1.) अथर्ववेदः--
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अथर्वन् ऋषि के नाम पर इस वेद काम "अथर्वा" पडा। इस वेद अथर्वा ऋषि और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन हैः--स आथर्वणो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.5)
(2.) आङ्गिरस वेदः--
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अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट होने के कारण इस वेद का नाम "आङ्गिरस" वेद नाम पडा---स आङ्गिरसो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मण--1.8) और (शतपथ-ब्राह्मणः--13.4.3.8)
(3.) अथर्वाङ्गिरस वेदः---
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यह प्राचीन नाम है। इस वेद अथर्वा और अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा सर्वाधिक दृष्ट मन्त्रों का संकलन है। अतः इस वेद का नाम "अथर्वाङ्गिरस-वेद" नाम पडाः--अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।" (अथर्ववेदः--10.7.20)
(4.) ब्रह्मवेदः---
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इसका एक प्राचीन नाम ब्रह्मवेद भी है। अथर्ववेद में ही इसे ब्रह्मवेद भी कहा गया हैः--"तमृचश्च सामानि च यजूंषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।" (अथर्ववेदः--15.5.6) गोपथ-ब्राह्मण (1.2.16) में भी इसे ब्रह्मवेद कहा गया हैः--"ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति।"
(5.) भृग्वङ्गिरो वेदः---
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ग्वङ्गिराः और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट अनेक मन्त्र इस वेद में है। इसलिए उनके नाम पर इस वेद का नाम "भृग्वङ्गिरो वेद" नाम पडाः--"ब्रह्मा भृग्वङ्गिरोवित्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.3.1)
(6.) क्षत्रवेदः---
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शतपथ-ब्राह्मण (14.8.14.2 से 4 तक) में इस वेद को "क्षत्रवेद" कहा गया हैः--"उक्थं यजुः...साम...क्षत्रं वेद।" इस वेद में राजाओं और क्षत्रियों का विशेषतया वर्णन है।
(7.) भेषज्य वेदः---
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इस वेद में आयुर्वेद, चिकित्सा एवं ओषधियों आदि का विस्तृत वर्णन है, अतः इसे "भैषज्य-वेद" कहा गया हैः--"ऋचः सामानि भेषजा। यजूंषि।" (अथर्ववेदः---11.6.14) यहाँ इसे भेषजा (भेषजानि) कहा गया है।
(8.) छन्दो वेदः---
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अथर्ववेद का एक प्राचीन नाम "छन्दोवेद" या "छान्दस्" है। छन्द-प्रधान होने के कारण इसका यह नाम दिया गया हैः---"(क) ऋचः सामानि छन्दांसि...यजुषा सह।" (अथर्ववेदः--11.7.24) (ख) "छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्..." (ऋग्वेदः--10.90.9) और यजुर्वेदः--31.7)
(9.) महीवेदः--
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अथर्ववेद में इसका एक नाम "महीवेद" भी प्राप्त होता है। इसमें महती ब्रह्मविद्या का वर्णन किया गया है या इसमें मही-सूक्त है। मही पृथिवी को कहा जाता हैः--ऋचः साम यजुर्मही। (अथर्ववेदः--10.7.14)। इसमें पृथिवी को मही माता कहा गया हैः--"माता भूमिः पुत्रोsहं पृथिव्याः।"
शाखाएँः---
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महाभाष्य के पस्पशाह्निक में मुनि पतञ्जलि ने अथर्ववेद की 9 शाखाएं बताई हैं---"नवधाssथर्वणो वेदः"। ये 9 शाखाएँ हैः---(1.) पैप्लाद, (2.) तौद, (3.) मौद, (4.) शौनकीय, (5.) जाजल, (6.) जलद, (7.) ब्रह्मवद, (8.) देवदर्श और (9.) चारणवैद्य। आथर्वण-परिशिष्ट और चरणव्यूह में तौद के स्थान पर स्तौद नाम है। इन 9 शाखाओं में सम्प्रति केवल 2 शाखाएँ उपलब्ध हैं---(1.) शौनकीय ऍर (2.) पैप्लाद।
वेद व्यास ने अपने शिष्य सुमन्तु को अथर्ववेद का अध्ययन कराया था। सुमन्तु को "दारुण-मुनि" भी कहा जाता है। सुमन्तु का शिष्य कबन्ध था। उसके दो अन्य शिष्य थेः---पथ्य और वेददर्श। कहीं-कहीं वेददर्श के स्थान पर देवदर्श नाम प्राप्त होता है। महानारायणीयोपनिषद् इसी देवदर्शी नामक शाखा से सम्बन्धित है। पथ्य के तीन शिष्य थेः--जाजलि, कुमुद और शौनक। दूसरी ओर देवदर्श की चार शिष्य थेः--मोद, ब्रह्मबलि, पिप्पलाद और शौष्कायनि (शौक्लायनि) । इनमें शौनक के शिष्य बभ्रु तथा सैन्धवायन बताये जाते हैं। इन दोनों शिष्यों ने अथर्ववेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। इसी कारण इनके गुरु शौनक की शाखा सुरक्षित रही।
(1.) शौनकीय-शाखाः--
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सम्प्रति प्रचलित अथर्ववेद "शौनकीय-शाखा" ही है। इस संहिता में 20 काण्ड, 730 सूक्त और 5987 मन्त्र हैं। इसका सबसे बडा काण्ड 20 वाँ काण्ड है, जिसमें 958 मन्त्र है। इसका सबसे छोटा काण्ड 17 वाँ काण्ड है, जिसमें केवल 30 मन्त्र हैं। इस वेद में गद्य और पद्य दोनों प्रकार के मन्त्र हैं। इसी वेद पर ब्राह्मण "गोपथ-ब्राह्मण" उपलब्ध है।
(2.) पैप्पलाद-शाखाः---
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इस शाखा का प्रचार काश्मीर में अधिक है। यह संहिता अपूर्ण है। भाष्यकार पतञ्जलि इसी शाखा को मानने वाले थे। इसीलिए महाभाष्य के प्रारम्भ में अथर्ववेद का प्रथम मन्त्र "ओम् शन्नो देवीरभिष्टय..." दिया है। शौनकीय-शाखा में इस मन्त्र का स्थान हैः--1.6.1, जबकि अथर्ववेद (शौनक) का प्रथम मन्त्र हैः--"ये त्रिषप्ताः परियन्ति...."।
इस प्रमाण से पता चलता है कि महर्षि पतञ्जलि के समय सम्पूर्ण पैप्पलाद-संहिता उपलब्ध थी। पिप्पलाद ऋषि बहुत बडे विद्वान् ऋषि थे। इनके पास सुकेशा, भारद्वाजादि छः ऋषि समित्पाणि होकर आत्मविद्या (ब्रह्मविद्या) सीखने आये थे। इनका विशेष उल्लेख प्रश्नोपनिषद् में मिलता है। इस शाखा में भी 20 काण्ड ही है। इसके ब्राह्मण में आठ अध्याय हैं। इस शाखा की प्रति सम्प्रति काश्मीर की शारदा लिपि में उपलब्ध है।
उपवेदः---
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अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद माना जाता है। गोपथ-ब्राह्मण (1.1.10) के अनुसार अथर्ववेद के पाँच उपवेद हैः---"पञ्च वेदान् निरमिमीत--सर्पवेदम्, पिशाचवेदम्, असुरवेदम्, इतिहासवेदम्, पुराणवेदमिति।"
अथर्ववेद का मुख्य ऋषि अङ्गिरा हैं। इस वेद का अध्वर्यु ब्रह्मा है।
यज्ञ में ब्रह्मा का महत्त्वः---ऋग्वेद में चार ऋत्विजों में ब्रह्मा को मब्रह्मविद्या के उपदेशार्थ प्रतिष्ठित किया गया हैः--"ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याम्...।" (ऋग्वेदः--10.71.11) चारों वेदों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि ब्रह्मा के बिना यज्ञ संभव हो। यज्ञ ही ऋग्वेद का आधार है। ब्रह्मा के लिए अथर्ववेदवित् होना अनिवार्य है। इस प्रकार यज्ञ और ब्रह्मा परस्पर अनुस्यूत हैं। जहाँ ब्रह्मा है, वहाँ अथर्ववेद भी है।
अथर्ववेद के सूक्तः---
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अथर्ववेद में अनेक प्रसिद्ध सूक्त हैं, जिनके यहाँ नाममात्र दिये जा रहे हैंः---
(1.) पृथिवी-सूक्त (भूमि-सूक्त)-12.1, (2.) ब्रह्मचर्य-सूक्त---(11.5), (3.) काल-सूक्त---(11.53 और 54), (4.) विवाह-सूक्त--(14 वाँ काण्ड) (5.) व्रात्य-सूक्त--(15 वाँ काण्ड--सूक्त 1 से 18), (6.) मधुविद्या-सूक्त---काण्ड 9 सूक्त 1), (7.) ब्रह्मविद्या-सूक्त--अनेक स्थल पर उपलब्ध है।

एम.डी. तिवारी

यजुर्वेद संहिता

!!!---: यजुर्वेद-संहिता :---!!!
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"यजुस" के नाम पर ही वेद का नाम यजुस+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। "यजुस्" का अर्थ समर्पण से होता है । इसका मुख्य अर्थ हैः---

(1.) "यजुर्यजतेः " (निरुक्तः-7.12) अर्थात् यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को "यजुष्" कहते हैं ।

(2.) "इज्यतेनेनेति यजुः ।" अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता है, उन्हें यजुष् कहते हैं । पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्ध, योग, इंद्रिय निग्रह इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है । यजुर्वेद का यज्ञ के कर्मकाण्ड से साक्षात् सम्बन्ध है, अतः इसे "अध्वर्युवेद" भी कहा जाता है । यज्ञ में अध्वर्यु नामक ऋत्विज् यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करता है और वही यज्ञ का नेतृत्व करता है । इसीलिए सायण ने कहा है कि वह यज्ञ के स्वरूप का निष्पादक है ।

(3.) अनियताक्षरावसानो यजुः । अर्थात् जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।

(4.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा---2.1.37) अर्थात् पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि सभी गद्यात्मक मन्त्र-रचना यजुः की कोटि में आती है ।

(5.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः । अर्थात् एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पज-समूह को एक यजुः कहेंगे । इसका अभिप्राय यह है कि एक सार्थक वाक्य को यजुः की एक इकाई माना जाता है ।

मुख्यवेद-- यजुर्वेद
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तैत्तिरीय-संहिता के भाष्य की भूमिका में सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद भित्ति (दीवार) है और अन्य ऋग्वेद एवं सामवेद चित्र है । इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है । यज्ञ को आधार बनाकर ही ऋचाओं का पाठ और सामगान होता है ।

"भित्तिस्थानीयो यजुर्वेदः, चित्रस्थानावितरौ । तस्मात् कर्मसु यजुर्वेदस्यैव प्राधान्यम् ।" (तै.सं. भू.)

यजुर्वेद का दार्शनिक रूपः---
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ब्राह्मण-ग्रन्थों में यजुर्वेद का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया गया है । यजुर्वेद विष्णु का स्वरूप है, अर्थात् इसमें विष्णु (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन है । "यजूंषि विष्णुः।" शतपथ-ब्राह्मण---4.6.7.3) ) यजुर्वेद प्राणतत्त्व और मनस्तत्त्व का वर्णन करता है , अतः वह प्राण है, मन हैः---"प्राणो वै यजुः।" (शतपथ-ब्राह्मण--14.8.14.2) । "मनो यजुः।" (शतपथ-ब्राह्मण---14.4.3.12) यजुर्वेद में वायु और अन्तरिक्ष का वर्णन है, अतः वह अन्तरिक्ष का प्रतिनिधि है । "अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः ।" (षड्विंश-ब्राह्मण--1.5 ) यजुर्वेद तेजस्विता का उपदेश देता है , अतः वह महः (तेज) है । "यजुर्वेदः एव महः ।" (गोपथ-ब्राह्मण--5.15) । यजुर्वेद क्षात्रधर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है. अतः वह क्षत्रियों का वेद है । "यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।" (तैत्तिरीय-ब्राह्मण--3.12.9.2)

इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी। इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण हैः--

अग्निहोत्र
अश्वमेध
वाजपेय
सोमयज्ञ
राजसूय
अग्निचयन

ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं।

राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना
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ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ -- यजुर्वेद २२, मन्त्र २२

अर्थ-
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ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥

संप्रदाय
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यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- आदित्य सम्प्रदाय और ब्रह्म सम्प्रदाय प्रमुख हैं। शुक्लयजुर्वेद आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है । आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित शुक्लयजुर्वेद का आख्यान याज्ञवल्क्य ऋषि ने किया हैः--- आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि । वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येन आख्यायन्ते । (शतपथ-ब्राह्मण---14.9.4.33)

संहिताएँ
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वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।

शाखाएँ
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यजुर्वेद मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैः--(1.) शुक्लयजुर्वेद (2.) कृष्णयजुर्वेद । शुक्लयजुर्वेद को ही वाजयनेयि-संहिता और माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं । याज्ञवल्क्य इसके ऋषि हैं । वे मिथिला के निवासी थे । इनके पिता का नाम वाजसनि होने के कारण याज्ञवल्क्य को वाजसनेय कहते थे । वाजसनेय से सम्बद्ध संहिता वाजसनेयि-संहिता कहलाई । याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के आदित्य (सूर्य) से इस वेद को प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं ।

शुक्ल और कृष्ण भेदों का आधार यह है कि शुक्ल यजुर्वेद में यज्ञों से सम्बद्ध विशुद्ध मन्त्रात्मक भाग है । इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है । ये मन्त्र इसी रूप में यज्ञों में पढे जाते हैं । विशुद्ध और परिष्कृत होने के कारण इसे शुक्ल (स्वच्छ, अमिश्रित) यजुर्वेद कहा जाता है ।

कृष्ण य़जुर्वेद का सम्बन्ध ब्रह्म-सम्प्रदाय से है । इसमें मन्त्रों के साथ ही व्याख्या और विनियोग वाला अंश भी मिश्रित है, अतः इसे कृष्ण (अस्वच्छ, मिश्रित) कहते हैं । इसी आधार पर शुक्ल यजुर्वेद के पारायण कर्त्ता ब्राह्मणों को शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद के पारायण कर्त्ता ब्राह्मणों को मिश्र नाम दिया गया है ।

महर्षि पतञ्जलि ने यजुर्वेद की 101 शाखाओँ का उल्लेख किया है । एकशतमध्वर्युशाखाः । (महाभाष्य-पस्पशाह्निक) षड्गुरुशिष्य की सर्वानुक्रमनिका की वृत्ति में तथा कूर्मपुराण में भी यजुर्वेद की 100 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । परन्तु चरणव्यूह में यजुर्वेद 86 शाखाओं का उल्लेख मिलता है । इसका विवरण भी वहाँ दिया हुआ हैः---(1.) चरकशाखा--12, (2.) मैत्रायणीय--7, (3.) वाजयनेय---17, (4.) तैत्तिरीय---6, (5.) कठ---44

इस समय यजुर्वेद की केवल 6 शाखाएँ ही उपलब्ध होती है, और यही नाम भी उपलब्ध है । अन्य शाखाएँ लुप्त हो गईं या आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया ।
(1) शुक्लयजुर्वेदः---वाजसनेयि (माध्यन्दिन) और कण्व-शाखा
(2.) कृष्णयजुर्वेदः-- काठक , कपिष्ठल, मैत्रायणी , तैत्तिरीय ।

शुक्लयजुर्वेदः--
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सम्प्रति शुक्लयजुर्वेद की दो शाखाएँ ही उपलब्ध होती हैः--

(1.) माध्यन्दिन या वाजसनेयि-संहिता---
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इसमें 40 अध्याय और 1975 मन्त्र हैं । इसमें कुल 2,88,000 शब्द हैं । इसका अन्तिम अध्याय 40वाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद् कहलाता है । इस शाखा का प्रचार सम्प्रति उत्तर भारत में है ।

(2.) काण्व-संंहिता ---
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इसमें भी 40 अध्याय हैं किन्तु मन्त्र अधिक है---2086 अर्थात् वाजसनेयि-शाखा से इसमें 111 मन्त्र अधिक है । इसमें अध्याय 40, अनुवाक 328 और मन्त्र 2086 है । दोनों शाखाओं के मन्त्रों के क्रम में भी अन्तर है । इस शाखा के ऋषि महर्षि कण्व है, जो ऋग्वेद के कई सूक्तों के ऋषि भी हैं, इसका वंश भी उपलब्ध होता है । इनके पिता बोधायन माने जाते हैं और गुरु याज्ञवल्क्य थे । सम्प्रति इस शाखा का प्रचार महाराष्ट्र में है । किन्तु प्राचीन काल में इसका प्रचार उत्तर भारत में भी था । कण्व ऋषि का सम्बन्ध उत्तर भारत से ही था । साम्राज्ञी शकुन्तला के ये धर्मपिता थे । इनका आश्रम मालिनी नदी (सम्प्रति बिजनौर जिले के कोटद्वार के पास मालन नदी) के तट पर था ।

कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के २७ शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ।

यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्लेखनीय हैं। इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से संबंध दर्शाते हैं। शृंगेरी के शंकराचार्यों में भी यजुर्वेद भाष्यों की विद्वत्ता की परंपरा रही है।

शुक्लयजुर्वेद की विषयवस्तु
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यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है । इसमें विभिन्न यज्ञों की विधियाँ और उनमें पाठ्य मन्त्रों का संकलन है । यज्ञ करने वाले ऋत्विज् को अध्वर्यु कहते हैं । ऋग्वेद में अध्वर्यु के विषय में कहा गया है कि वह यज्ञ का संयोजक और निष्पादक होता है , अतः वह यज्ञ का नेता होता हैः--
"यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः ।" (ऋग्वेदः--10.71.11)

यास्क ने अध्वर्यु की व्याख्या की हैः---"अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता।" (निरुक्तः--1.3)
अर्थात् यज्ञ का संयोजक और यज्ञ का नेता ।

दोनों शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद की विषय-वस्तु प्रायः समान ही है । यहाँ वाजसनेयि-संहिता का प्रतिपाद्य प्रस्तुत हैः---

अध्याय एक और दो---इसमें दर्श (अमावास्या के बाद वाली प्रतिपदा को दर्श कहा जाता है) और पौर्णमास (पूर्णिमा) से सम्बद्ध यागों का वर्णन है ।

अध्याय तीन---इसमें अग्निहोत्र और चातुर्मास्य इष्टियों का वर्णन है । इसका अभिप्राय है--चार-चार मास पर ऋतु-परिवर्तन होने पर किए जाने वाले विशेष यज्ञ ।

अध्याय--4 से 8 तक---इनमें अग्निष्टोम और सोमयाग का वर्णन है । अग्निष्टोम ज्योतिष्टोम का परिष्कृत रूप है । यह स्वर्ग की कामना से किया जाता है । इसमें 16 पुरोहित होते हैं और यह पाँच दिन चलता है । सोमयाग में सोमरस में दूध मिलाकर आहुति दी जाती है । यह याग प्रातः मध्याह्न और सायं तीन बार होता है, अतः इसे प्रातःसवन, मध्याह्न सवन और सायं सवन कहते हैं ।

अध्याय-9 और 10---इनमें वाजपेय और राजसूय यागों का वर्णन है ।
अध्याय--11 से 18 तक--- इनमें अग्निचयन और विविध प्रकार की वेदियों  के निर्माण से सम्बद्ध मन्त्र हैं । वेदी की रचना 10,800 ईंटों से होती थी  और इनकी आकृति यज्ञ के अनुसार विभिन्न प्रकार की होती थी। कुछ वेदियाँ श्येन (गरुड) आदि पक्षियों के आकार की होती थी ।

अध्याय--19 से 21 तक---इनमें सौत्रामणि याग का विधान है । राज्य-च्युत राज इस याग को राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए करता था ।

अध्याय--22 से 25 तक---इनमें अश्वमेध-यज्ञ का विस्तृत वर्णन है । जन्तुविज्ञान की दृष्टि से ये अध्याय अतिमहत्त्वपूर्ण है । इनमें सैंकडों पक्षियों का उल्लेख हुआ है ।
अध्याय--26 से 29 तक---ये खिल अध्याय हैं ।

अध्याय-30--इसमें पुरुषमेध का वर्णन है । इसमें पूरे समाज को एक पुरुष माना गया है । इसमें 184 व्यवसायों का उल्लेख हुआ है । समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह अध्याय अति महत्त्वपूर्ण है ।

अध्याय 31--इसे पुरुष सूक्य और विष्णु सूक्त भी कहते हैं । इसमें विराट् पुरुष के स्वरूप का वर्णन है ।

अध्याय 32---इसमें विराट् पुरुष के दार्शनिक और आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन है ।

अध्याय 33-- इसमें सर्वमेध सूक्त है ।
अध्याय 34---इसके प्रारम्भ के 6 मन्त्र शिवसंकल्पसूक्त है । मनोविज्ञान की दृष्टि से ये महत्त्वपूर्ण हैं ।

अध्याय 35--इसमें पितृमेध का वर्णन है ।
अध्याय 36 से 38 तक---इनमें प्रवर्ग्यनामक यज्ञ का वर्णन है ।
अद्याय 39--इसमें अन्त्येष्टि-संस्कार से सम्बद्ध मन्त्र है । इसे प्रायश्चित्ताध्याय भी कहते हैं ।
अध्याय 40---इसके मन्त्र ईशावास्योपनिषद् में भी आए हैं । इस उपनिषद् का प्रथम स्थान प्राप्त है । इसमे अध्यात्म और दर्शन का अपूर्व वर्णन है ।

इन यागों , इष्टियों का उद्देश्य विशेष रूप है । मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन्हें किया जाता था । कुछ यज्ञ राजा की श्रीवृद्धि के लिए किया जाता था । कुछ यज्ञ ब्राह्मणों की ओजस्विता, तेजस्विता एवं मेधा-वृद्धि के लिए किया जाता था । कुछ यज्ञ सार्वजनिक उन्नति के लिए किया जाता था ।

---: कृष्णयजुर्वेद :---
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चरण व्यूह के अनुसार यजुर्वेद की 86 शाऱाएँ हैं, जिनमें से शुक्ल यजुर्वेद की 17 और शेष 69 शाखाएँ कृष्ण यजुर्वेद की हैं । कृष्ण यजुर्वेद में भी तैत्तिरीय शाखा के दो मुख्य भेद हैः--औख्य और खाण्डिकेय । खाण्डिकेय के पाँच भेद हैं--आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशि और कात्यायन । मैत्रायणी के सात भेद हैं और कठ (चरक) के 12 भेद हैं । कठ के 44 उपग्रन्थ भी हैं । सम्प्रति कृष्णयजुर्वेद की केवल चार ही शाखाएँ उपलब्ध हैंः---(1.) तैत्तिरीय, (2.) मैत्रायणी, (3.) कठ, (4.) कपिष्ठल ।

तैत्तिरीय-संहिता
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यह कृष्णयजुर्वेद की सर्वप्रमुख संहिता है । इसमें 7 काण्ड, 44 प्रपाठक और 631 अनुवाक है । अनुवाकों में भी उपभेद (खण्ड) पाए जाते हैं । जैसेः---

देवा वसव्या अग्ने सोम सूर्य ।" (तै.सं. का.2,प्र.4,अनु.8 खण्ड-1)

यही एक संहिता है, जिसके ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, शुल्बसूत्र और धर्मसूत्र सभी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । यह संहिता परिपूर्ण व सर्वांगपूर्ण है । इसी संहिता के बोधायन और आपस्तम्ब के श्रौत-गृह्य-शुल्ब-धर्मसूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । इसमें भी शुक्ल यजुर्वेद के तुल्य विविध यागों का वर्णन है ।

इसके काण्डों के अनुसार वर्ण्य-विषयः--
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(1.) काण्ड--1--दर्शमूर्णमास, अग्निष्टोम, राजसूय ।
(2.) काण्ड--2--पशुविधान, इष्टि विधान ।
(3.) काण्ड 3--पवमान ग्रह आदि, वैकृत विधि, इ,्टिहोम ।
(4.) काण्ड 4---अग्निचिति, देवयजनग्रह, चितिवर्णन, वसोर्धारा संस्कार ।
(5.) काण्ड--5--उख्य अग्नि, चितिनिरूपण, इष्टकात्रय, वायव्य पशु आदि ।
(6.) काण्ड--6--सोममन्त्रब्राह्मण ।
(7.) काण्ड --7--अश्वमेध, षड्रात्र आदि सत्रकर्म ।

इस संहिता का विशेष, प्रचार महाराष्ट्र, आन्ध्र व अन्य द. भारत में है । आचार्य सायण इसी शाखा के ब्राह्मण थे । इसलिए उन्होंने सर्वप्रथण इसी शाखा का भाष्य किया था । सायण से पूर्ववर्ती भट्ट भास्कर मिश्र (11 वीं शती) ने भी "ज्ञानयज्ञ" नामक भाष्य इस पर किया था । डॉ. कीथ ने इसका आंग्लभाषा में अनुवाद किया था ।

मैत्रायणी संहिता
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मैत्रायणीय शाखा कठ (चरक) की 12 शाखाओं में से एक है । मैत्रायणी संहिता की सात शाखाओं का उल्लेख चरण व्यूह में मिलता है । ये शाखाएँ हैं--

(1.) मानव, (2.) दुन्दुभ, (3.) ऐकेय, (4.) वाराह, (5.) हारिद्रवेय, (6.) श्याम, (7.) श्यामायनीय । इस शाखा के प्रवर्तक मैत्रायण या मैत्रेय हैः---अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दिवोदासस्य सन्ततिम् । दिवोदासस्य दायादो ब्रह्मर्षिर्मित्रयुर्नृप । मैत्रायणी ततः शाखा मैत्रेयस्तु ततः स्मृतः ।। (हरिवंश पुराण--अ. 34)

इस संहिता में मन्त्र और व्याख्या भाग (ब्राह्मण या गद्यभाग) मिश्रित है । इसमें 4 काण्ड , 54 प्रपाठक और 3144 मन्त्र हैं । इनमें से 1701 मन्त्र ऋग्वेद से उद्धृत है ।

वर्ण्य-वस्तु की दृष्टि से अन्य यजुर्वेद की शाखाओं के तुल्य इसमें भी विभिन्न यागों का वर्णन है ।
(1.) काण्ड--1---दर्शपूर्णमास, अध्वर, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य और वाजपेय याग ।
(2.) काण्ड--2---काम्य इष्टियाँ, राजसूय और अग्निचिति ।
(3.) काण्ड--3--अग्निचिति, अध्वर आदि की विधि, सौत्रामणी और अश्वमेध याग ।
(4.) काण्ड---4--- यह खिल पाठ है । इसमें राजसूय, अध्वर, प्रवर्ग्य और याज्यानुवाक ।

काठक संहिता
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इसे कठ-संहिता भी कहा जाता है । यह कठ-शाखा की संहिता है । यह चरकों की शाखा मानी जाती है । इसमें पाँच खण्ड हैः---
(1.) इठिमिका, (2.) मध्यमिका, (3.) ओरामिका, (4.) याज्यानुवाक्या, (5.) अश्वमेधादि अनुवचन ।

इसके उपखण्डों को स्थानक और अनुवचन कहा जाता है ।
इसका वर्णन इस प्रकार हैः---
खण्ड-1--इठिमिका, स्थानक 1 से 18, मन्त्र 1 से 1538
खण्ड 2---मध्यमिका, स्थानक 19 से 30, मन्त्र 1539 से 2053
खण्ड 3--ओरिमिका]
खण्ड 4--याज्यानुवाक्या]  स्थानक 31 से 40, मन्त्र 2054 से 2799
खण्ड 5--अश्वमेधादि वचन 1 से 13, मन्त्र 2800 से 3028

इस प्रकार पाँच खण्डों में 40+ वचन 13 = 53 उपखण्ड, अनुवाक 843 और 3028 मन्त्र हैं । मन्त्र और ब्राह्मणों की सम्मिलित संख्या 18 हजार है ।

काठक-संहिता में वर्णित प्रमुख 19 याग क्रमशः ये हैंः---
(1.) दर्श-पूर्णमास, (2.)  ज्योतिष्टोम, (3.) अग्निहोत्र, (4.) उपस्थान आदि कर्म, (5.) आधान, (6.) काम्य इष्टियाँ, (7.) विविध-पयस्या याग, (8.) पशुबन्ध, (9.) वाजपेय, (10.) राजसूय, (11.) अग्निचयन, (12.) पत्नीव्रत-याग, (13.) अतिरात्र आदि सत्र, (14.) एकदशिनी, (15.) प्रायश्चित्तियाँ, (16.) चातुर्मास्य, (17.) गोसव आदि याग, (18.) सौत्रामणी, (19.) अश्वमेध ।

कृष्णयजुर्वेद की चारों संहिताओं में प्रायः स्वरूप की एकता है और विविध यागों में प्रयुक्त मन्त्रों में भी बहुत साम्य है । इसका कारण यह है कि ये शाखाएँ वस्तुतः यजुर्वेद की ही शाखाएँ हैं, अतः इनमें में साम्य है ।

महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है---"ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोेच्यते ।" (महाभाष्य-4.3.101)

इससे ज्ञात होता है कि पतञ्जलि (150 ई.पू.) के समय में काठक और कलाप-शाखा का प्रचार गाँव-गाँव में था । आजकल यह शाखा लुप्तप्राय है ।

इस शाखा में उदात्त अक्षर के ऊपर ही ऊर्ध्व रेखा (स्वरित जैसा चिह्न) है । अनुदात्त और स्वरित पर कोई चिह्न नहीं है ।

कपिष्ठल (कठ) संहिता
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यह शाखा "चरणव्यूह" के अनुसार चरकों की 12 शाखाओं में से एक है । प्राचीन काल में कठों की कई शाखाएँ प्रचलित थीं, जैसे कठ, प्राच्य कठ और कपिष्ठल कठ । इस शाखा के प्रवर्तक कपष्ठल ऋषि थे । पाणिनि ने "कपिष्ठलो गोत्रे" (8.3.91) तथा दुर्गाचार्य ने निरुक्त-टीका (4.4) में  अहं च कपिष्ठलो वासिष्ठः" का उल्लेख किया है । इससे ज्ञात होता है कि ये वसिष्ठ-गोत्र के थे । विद्वानों का अनुमान है कि कुरुक्षेत्र के पास "कैथल" ग्राम कपिष्ठल का ही अपभ्रंश है और यह कपिष्ठल ऋषि का निवास स्थान था ।

डॉ. रघुवीर ने इसका एक सुन्दर संस्करण 1932 में लाहौर से प्रकाशित कराया था । यह संहिता ऋग्वेद की तरह अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है । इसमें स्वरांकन पद्धति काठक-संहिता के तुल्य है । इसके केवल 6 अष्टक उपलब्ध हैं । 48 अध्याय पर समाप्ति है । बीच में कई अध्याय सर्वथा नहीं है या अपूर्ण है । इसमें अध्याय 9 से 24, 32, 33 और 43 सर्वथा खण्डित है ।

अश्वमेधादि याग
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यजुर्वेद के कई अध्यायों में "मेध" वाले यज्ञ हैं । यथा--अश्वमेध--(22.29), पुरुषमेध या नरमेध (30.31), सर्वमेध (32.33), पितृमेध (35.29) । कतिपय भारतीय और पाश्चात्त्य विद्वानों को भ्रान्ति है कि "मेध" शब्द केवल बलि या वध का वाचक है । यह शब्द मेधृ संगमे च धातु से बना है, जिसका अर्थ है---संगम (गुणों से युक्त होना), मेधा (ज्ञानवृद्धि) और हिंसा । अतः केवल हिंसा अर्थ को लेकर सर्वत्र बलि देना अर्थ करना अज्ञानता है । कालिदास ने भी मेध शब्द का प्रयोग किया है----"प्रजायै गृहमेधिनाम्" (रघुवंश) अर्थात् सन्तान के लिए गृहमेधी (गृहस्थी) होना । गृहमेध का अर्थ घर को बलि देना अर्थ नहीं हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि मेध शब्द का प्रयोग उन्नति, प्रगति, तेजस्विता आदि के लिए होता था । यजुर्वेद में मेध शब्द का अर्थ घी, अन्न और भोज्य पदार्थ तथा पौष्टिक पदार्थ बताए गए हैं। अतः जौ, चावल और पुरोडाश को मेध बताया है ।

यजुर्वेद में अश्वमेध आदि शब्द राष्ट्रिय उन्नति और प्रगति के लिए है ।यथा पितृमेध या पितृयज्ञ का अभिप्राय है---माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा और उन्हें अन्नादि से तृप्त रखना । मेध शब्द का प्रयोग श्रीवृद्धि, समृद्धि, उन्नति आदि के लिए होता था । शतपथ और तैत्तिरीय आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में अश्वमेध की अनेक पारिभाषिक व्याखायाएँ की गई हैं ।इसके अनुसार अश्वमेध का अर्थ है--राष्ट्र की श्रीवृद्धि , राष्ट्र को धन-धान्य से समृद्ध करना, राष्ट्र को तेजस्वी ऊर्जस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनाना । इसी प्रकार पुरुषमेध (नरमेध) का अर्थ है---मनुष्य की सर्वागीण उन्नति । सर्वमेध का अर्थ है---प्रजामात्र की  सर्वतोमुखी उन्नति । अत एव गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि सर्वमेध अर्थात् सर्वजन समुन्नति के द्वारा राजा सर्वराट् (सबका अधिपति) हो जाता है । गोमेध का अभिप्राय है ---गोवंश की रक्षा करना और पशु-समृद्धि ।

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एम.डी. तिवारी