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Thursday 23 November 2017

संस्कृत व्याकरण परम्परा का परिचय





                 न सोSस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमात्त्ते.
                   अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ..
                                 वाक्यपदीयकार भर्तृहरी के उपर्युक्त कथनानुसार संसार का कोई भी ज्ञान शब्द से ही प्रकाशित होता है, शब्द के बाह्य तथा अन्तः स्वरुप को समझने के लिए तत्तत् वैयाकरणो ने अनेक शब्दानुशासनों की रचना की हैं . वैयाकरण शब्द को ही नित्य एवं प्रमाण मानते हैं, अतः वैयाकरणो का अपर नाम शाब्दिक है . शब्द या वाक् के प्रथम दर्शन हमें वेद में होतें हैं, वेद सर्वज्ञानमय शास्त्र है –
                    यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः .
                    स सर्वोSभितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सा .. ( मनु स्मृति -२.७ )

              संस्कृत व्याकरणशास्त्र का आदिमूल भी वेद ही हैं. वैदिक मन्त्रों में अनेक पदों की व्युत्पत्तियाँ उपलब्ध होतीं हैं, को व्याकरण की वेदमूलकता को पुष्ट करती हैं . शब्दशास्त्र के प्रमाणभूत आचार्य पतंजलि ने व्याकरण अध्ययन के प्रयोजनों का वर्णन करतें समय ‘चत्वारि शृङ्गा:’, ‘चत्वारि वाक्’, ‘उत त्व:’, ‘सक्तुमिव’, ‘सुदेवोsसि’ ये पांच मन्त्र उद्धृत किये हैं तथा इनकी व्याख्या व्याकरणशास्त्र परक की है. यजुर्वेद में ‘व्याकरण’ पद की निरुक्ति करते हुए कहा गया है की – ‘ प्रजापति ने ही शब्दों के स्वरूप को देख कर उन्हें व्याकृत अर्थात खंड-खंड करके विवेचन किया –
                       दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत सत्यानृते प्रजापतिः ( यजुर्वेद-१९.७७)
                 व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति के विषय में स्पष्टतया कह पाना अत्यंत कठिन है, किन्तु इतना निश्चित है कि उपलब्ध वैदिक पदपाठों की रचना से पूर्व व्याकरणशास्त्र अपनी पूर्णता को प्राप्त कर चूका था तथा प्रकृति-प्रत्यय, धातु, उपसर्ग तथा समासघटित पूर्वोत्तर पदों का विभाग पूर्णतया निर्धारित हो चूका था. वाल्मीकीयरामायण से विदित होता है की रामराज्य में व्याकरणशास्त्र का सुव्यवस्थित पठन-पाठन होता था. किष्किन्धाकांड में लिखा है –
                                    नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्.
                                    बहू व्याहरतानेन न किञ्चिदपभाषितम् ..
                  महाभाष्यकार पतंजलि भी मानतें हैं की अत्यंत प्राचीनकाल में व्याकरणशास्त्र का पठन-पाठन प्रचलित था . वस्तुत त्रेतायुग के आरम्भ में व्याकरणशास्त्र ग्रन्थ के रूप में सुव्यवस्थित हो चूका था. महर्षि वेदव्यासरचित महाभारत के उद्योगपर्व में भी कहा गया है की जो पाठक शब्द के समस्त अर्थों को व्याकृत करता है उसे वैयाकरण कहतें हैं.  शब्दों को व्याकृत करने वाला शास्त्र ही व्याकरण कहलाता है –
                               सर्वार्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते .
                               तन्मूलतो व्याकरणं व्याकरोतिती तत्तथा ..        
                 महर्षि पतंजलि ने – ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोध्येयोज्ञेयश्च प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणम् . कह कर व्याकरण की अनिवार्य पठनीयता का प्रतिपादन किया है. पाणिनीयव्याकरण में निर्देशित धातु, प्रातिपदिक, आख्यात, वचन, विभक्ति, इत्यादि अनेक संज्ञाओं का संकेत गोपथ ब्राह्मण में मिलता है –
       ओंकारं पृच्छाम:, को धातुः, किं प्रातिपदिकं, किं नामाख्यातम्, किं लिङ्गं, किं वचनं, का विभक्तिः, कः प्रत्ययः, कः स्वरः, उपसर्गोनिपातः, किं वै व्याकरणं, को विकारः, को विकारी .....
                व्याकरणशास्त्र की प्राचीनता के विषय में हम कह सकतें हैं की समस्त भारतीय उत्तरवैदिक साहित्य से लेकर अधुनातन साहित्य पर्यंत व्याकरणशास्त्रों की रचना होती आई है. ऋकतंत्र में व्याकरण का प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा को बतलाया गया है. व्याकरण के एकदेश अक्षरसमाम्नाय के प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा हैं, द्वितीय प्रवक्ता बृहस्पति तथा तृतीय प्रवक्ता इंद्र हैं. इंद्र से व्याकरण परंपरा भारद्वाज तथा भारद्वाज से ब्रह्मऋषियों तक पहुची. पातंजलमहाभाष्य के अनुसार बृहस्पति ने इंद्र के लिए प्रतिपद पाठ द्वारा शब्दोपदेश किया –
       एवं हि श्रूयते – बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपरायणं प्रोवाच नान्तं जगाम. दिव्यं वर्षसहस्रमध्ययनकालो न चान्तं जगाम किम पुनरध्यत्वे. यः सर्वथा चिरं जीवति वर्षशतं जीवति.....( महाभाष्य, प्रथम अध्याय,प्रथमपाद,प्रथम अहानिक )
            अर्वाचीन वैयाकरण मुख्यरूप से इंद्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, पाणिनि, अमर तथा जैनेन्द्र इन आठ शब्दिकों का उल्लेख करतें हैं. सम्प्रति ज्ञात जितने व्याकरण प्रवक्ता हैं उन्हें हम दो भागों में विभक्त कर सकतें हैं- १. पाणिनि से प्राचीन तथा २. पाणिनि से अर्वाचीन. पाणिनि से प्राचीन आचार्यों में इंद्र, वायु, भरद्वाज, भागुरी, पौष्करसादी, काशकृत्स्न, रौडी, चारायन, माध्यन्दिनि, वैयाघ्र्यपद्य, शौनकी, गौतम, व्याडी, आपिशली, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक, तथा स्फोटायन के नाम प्रमुख हैं.  पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरणों की चर्चा हम आगे करेंगे .

              संस्कृत ब्याकरण परंपरा का सिंहावलोकन करने पर प्रतीत होता है की समग्र संस्कृत व्याकरण परंपरा पाणिनि तथा पाणिनि रचित अष्टाध्यायी के समीप ही घुमती हुई दिखाई देती है. पाणिनि संस्कृत व्याकरण परपरा के आधाररूप से प्रतिष्ठित हैं. पाणिनि के बाद कात्यायन एवं पतंजलि का नाम संस्कृत व्याकरण परंपरा में प्रतिष्ठित है.  पाणिनि, कात्यायन तथा पतंजलि ये तीनो ‘त्रिमुनि’ के रूप में पूजित तथा प्रतिष्ठित हैं, ‘यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्’ इस उक्ति के अनुसार सूत्रकार पाणिनि से वर्तिककार कात्यायन तथा कात्यायन से भाष्यकार पतञ्जलि अधिक सम्मान्य है.  आचार्य भट्टोजी दीक्षित ने वैयाकरणसिद्धांतकौमुदी के मंगलाचरण में व्याकरणशास्त्र के त्रिमुनियों को नमन किया है –
                             मुनित्रयं नमस्कृत्य तदुक्तिं परिभाव्य च .

                             वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदियं विरच्य्ते  ..

क्रमशः .........