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Thursday 16 July 2015

धर्म

🚩🚩धर्म का स्वरुप व महत्त्व

✔धर्म शब्द का अर्थ है - किसी वस्तु या व्यक्ति में सदा रहने वाली उसकी मूल वृत्ति, प्रकृति, स्वभाव, मूल गुण।
✔ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य को भी धर्म कहा जा सकता है।

✅यह शब्द संस्कृत की 'धृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलंबन देना, पालन करना।

™वेदों के अनुसार उत्तम आचरण के निश्चित और व्यवहारिक नियम ही धर्म  हैं। 

✔'आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे। (ऋग्वेद - 4.5.3.3) 
''धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया। (ऋग्वेद - 5.63.7)
यहाँ पर 'धर्म का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धांत) या आचार नियम है। 

✔अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्। दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। 

✔तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (गीता : 16/1, 2, 3)

✔य रहित मन की निर्मलता, दृढ़ मानसिकता, स्वार्थरहित दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, सरल, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप-आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नहीं रखना - यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते हैं।

✔सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।। (महाभारत शांतिपर्व - 174/2)
✅धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं, तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व (ज्ञान रूप में) मिलता है। जब हम धर्म आचरण करते हैं तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है।किंतु ये कठिनाइयाँ हमारे ज्ञान और समझ को बढ़ाती हैं। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरूप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मों को ध्यान से देखते हैं और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नहीं होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।

✔यस्मिंस्तु सर्वे स्यरसंनिविष्टा धर्मो यत: स्यात् तदुपरक्रमेता। 
द्वेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके कामत्मता खल्वपि न प्रशस्ता।। (वाल्मीकि रामायण 2/21/58)

✅जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थ शामिल न हो उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो, वही कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। धर्म विरुद्ध कार्य करना प्रशंसा नहीं निंदा की बात है।

✔धर्म अनुभूति की वस्तु है। वह मुख की बात मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रुप हो जाना- उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण का विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाना - यही धर्म है।
(7-8 स्वामी विवेकानंद साहित्य, संचयन पृष्ठ : 107, 121)

✔किसी वस्तु की विधायक आंतरिक वृत्ति को उसका धर्म कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर निर्भर है, वही उस पदार्थ का धर्म है।
(डॉ. राजबली पाण्डेय, हिंदू धर्मकोश पृष्ठ : 339)

✔वैशेशिक दर्शन ने धर्म की बड़ी सुंदर वैज्ञानिक परिभाषा दी है :
'यतोऽभ्युदयानि: श्रयेसिद्धि स धर्म।
अर्थात् धर्म वह है जिससे इस जीवन का विकास और अगले जीवन(जन्म) का सुधार हो।

✔वेद स्मृति: सदाचार स्तस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विध प्राहू: साक्षाद्रर्मस्य लक्षणम्।।
(मनु स्मृति 2.12)

✔मुरारी बापू कहते है-जीवन का लक्ष्य है ईश्वर को पाना। धर्म वह मार्ग है जो ईश्वर तक पहुंचाता है। भारतीय सनातन परंपरा में धर्म का सर्वमान्य भाव है- जिस कर्म से सबका कल्याण हो, वह धर्म है अर्थात् हमारे वे कार्य जिनसे समस्त सृष्टि का भला होता है, वह हमारा धर्म है। 

✔धर्म का यही भाव आगे चलकर विभिन्न स्वरूपों में ढलता गया और धर्माचरण के विधान बनते गए, किंतुयुग-युगांतरों में भी सनातन धर्म का शाश्वत भाव अपरिवर्तित रहा जोकि यह है :

✅सर्वे भवंतु सुखिन:सर्वे संतु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दु:ख भागभवेत।

🇮🇳सबके भले की कामना करने वाला दुनिया का एक मात्र धर्म सनातन धर्म ही है। वैदिक युग में (ऋग्वेद 10/90/16) यज्ञ को धर्म कहा गया है। यज्ञ का विधान संपूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए किया गया। वेदों के मंत्र हमें सिखाते हैं कि विश्व का कल्याण कैसे हो। वैदिक काल के बाद उपनिषद्काल में (कठोपनिषद् 1/2/14) कहा गया कि शास्त्रीय अनुष्ठान धर्म है। यानि वेदों में जो कहा गया है, वही धर्म है। मनुस्मृति (2/12)कहती है कि वेद, धर्मशास्त्र, सदाचार और आत्मसंतुष्टि धर्म के साक्षात लक्षण हैं। यानि वेद और शास्त्रों की वाणी का पालन करना, ऐसा आचरण करना जिससे किसी को कोई नुकसान या दु:ख न पहुँचे और ऐसे कार्य करना जिससे अपनी आत्मा को संतोष मिले वे सभी कार्य धर्ममय हैं। 

✔सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्य फलं तप:। ,
बहादुरस्य धर्म स्यने हास्ति विफला क्रिया। (महाभारत शांतिपर्व 174/2)

✅ अर्थात धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है।जब हम धर्ममय आचरण करते हैं तो चाहे हमें उसका फल तत्काल न दिखाई दे किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता ही है।सत्य (तप) को जानने का फल मृत्यु के पूर्व ही (ज्ञानकेरूपमें) मिलता है।

✔।श्री राम के अनुसार संसार में धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है।धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है धर्म का पालन करने वाले को माता-पिता, ब्राह्मण एवं गुरु के वचनों का पालन करना चाहिए।यथा:यस्मिस्तु सर्वेस्वरसं निविष्टा धर्मों, यत: स्यात्तदुपक्रमेत।द्रेष्यो भवत्यर्थ परोहिलोके कामात्मता खल्व पिन प्रशस्ता।

✔धर्मादर्थ: प्रभवतिधर्मात्प्रभवतेसुखम्।धर्मेणलभतेसर्वधर्मसारमिदंजगत्। (वाल्मीकिरामायण 3/9/30)

✅अर्थात धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख मिलता है,और धर्म से ही मनुष्य सर्वस्व प्राप्त कर लेता है।इस संसार में धर्म ही सार है।

✅धर्माचार्य मनु ने दस पदार्थों के धारण को धर्म कहा है:

1⃣धैर्य: धन संपत्ति, यश एवं वैभव आदि का नाश होने पर धीरज बनाए रखना तथा कोई कष्ट, कठिनाई या रूकावट आने पर निराश न होना।

2⃣क्षमा: दूसरों के दुव्र्यवहार और अपराध को लेना तथा क्रोश न करते हुए बदले की भावना न रखना ही क्षमा है।

3⃣दम: मन की स्वच्छंदता को रोकना। बुराइयों के वातावरण में तथा कुसंगति में भी अपने आप को पवित्र बनाए रखना एवं मन को मनमानी करने से रोकना ही दम है।

4⃣अस्तेय: अपरिग्रह- किसी अन्य की वस्तु या अमानत को पाने की चाह न रखना। अन्याय से किसी के धन, संपत्ति और अधिकार का हरण न करना ही अस्तेय है।

5⃣ शौच: शरीर को बाहर और भीतर से पूर्णत: पवित्र रखना, आहार और विहार में पूरी शुद्धता एवं पवित्रता का ध्यान रखना।

6⃣इंद्रिय निग्रह: पांचों इंद्रियों को सांसारिक विषय वासनाओं एवं सुख-भोगों में डूबने, प्रवृत्त होने या आसक्त होने से रोकना ही इंद्रिय निगह है।

7⃣धी-भलीभांति समझना। शास्त्रों के गूढ़-गंभीर अर्थ को समझना आत्मनिष्ठ बुद्धि को प्राप्त करना। प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना।

8⃣विद्या: आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान, जीवन के रहस्य और उद्देश्य को समझना। जीवन जीते की सच्ची कला ही विद्या है।

9⃣सत्य: मन, कर्म, वचन से पूर्णत: सत्य का आचरण करना। अवास्तविक, परिवर्तित एवं बदले हुए रूप में किसी, बात, घटना या प्रसंग का वर्णन करना या बोलना ही सत्याचरण है।

🔟आक्रोश: दुव्र्यवहार एवं दुराचार के लिए किसी को माफ करने पर भी यदि उसका व्यवहार न बदले तब भी क्रोध न करना। अपनी इच्छा और योजना में बाधा पहुंचाने वाले पर भी क्रोध न करना। हर स्थिति में क्रोध का शमन करने का हर संभव प्रयास करना।

🇮🇳विश्व के सभी धर्मों का मूल हिन्दु धर्म में है 👇

™हिन्दू - ईश्वर प्राणाधार, दु:खनाशक तथा सुख स्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें।

✅ईसाई - हे पिता, हमें परीक्षा में न डाल, परन्तु बुराई से बचा क्योंकि राज्य, पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही है।

✅इस्लाम - हे अल्लाह, हम तेरी ही वन्दना करते तथा तुझी से सहायता चाहते हैं। हमें सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मार्ग, जो तेरे 

कृपापात्र बने, न कि उनका, जो तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए।

✅सिख - ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, र्निवैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है । वह गुरु की कृपा से जाना जाता है।

✅यहूदी - हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शन कर, मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा।

✅शिंतो - हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें परन्तु हमारे हृदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हों । हमारे कान चाहे अपवित्र 
बातें सुनें, तो भी हमारे में अभद्र बातों का अनुभव न हो।

✅पारसी - वह परमगुरु (अहुरमज्द-परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भंडार के कारण, राजा के समान महान् है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकारों से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।

✅दाओ (ताओ) - दाओ (ब्रह्म) चिन्तन तथा पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही धर्म है।

✅जैन - अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार ।

✅बौद्ध धर्म - मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, मैं संघ की शरण में जाता हूँ।

✅कनफ्यूशस - दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा कि तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते।

✅बहाई - हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया है। तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा नहीं है। तू ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर।

🚩जय हिंदुत्व,जय सनातन🚩

#टंकण संबंधी त्रुटि हेतु क्षमा
🙏🙏
जय श्रीराम

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