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Tuesday 28 July 2015

भक्त का स्वरुप

♦भक्त का स्वरुप गीता जी के 12 वें अध्याय में
प्रभू ने स्पष्ट किया है-

🚩अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।
🚩संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः।।

✅जो मनुष्य सभी भूतों में द्वेष भाव से रहित हो,
स्वार्थ से रहित हो,प्राणी मात्र का प्रेमी हो।
हेतु रहित दयालु हो अर्थात जीवमात्र पे दया का
भाव रखे, मोह-ममता से रहित हो।
अहंकार का जिसके जीवन में कोई स्थान
ना हो। सुख तथा दुःख की स्थिति में समभाव
से रहे अर्थात विचलित या व्याकुल ना हो।

✅क्षमावान हो, अर्थात अपराध करने वाले को भी
अभय देने वाला हो एवं जिसने एक सतत योगी
के सामान मन-इन्द्रियों सहित अपने शरीर को
वश में किया हो और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला हो
ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। (12/13-14)

🚩यस्मान्नोद्विजते लोको लोकन्नोद्विजते च य:।
हर्ष अमर्ष भय उद्वेग मुक्तो यः स च में प्रिय:।।

✅जिस पुरुष से कोई जीव उद्वेग प्राप्त नहीं करता
हो तथा जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग नहीं रखता
हो तथा जो हर्ष, अमर्ष(दूसरों की तरक्की से जलन)
भय तथा उद्वेगादि विकारों से मुक्त हो ऐसा
भक्त मुझे प्रिय है। (12/15)

🚩अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स में प्रिय:।।

✅जो पुरुष आकांक्षाओं से रहित होकर, बाहर-
भीतर से शुद्ध (अर्थात खान-पान,आचार-व्यवहार,
मुख-वाणी,रहन-सहन की बाहरी शुद्धि तथा
राग,द्वेष,छल,कपट,कटुता,ईर्ष्या आदि आतंरिक
विकारों का नाश कर अंत:करण को साफ़ रखना
भीतरी शुद्धि है), चतुर,पक्षपात रहित और दुःखों
से छूटा हुआ हो अर्थात दुःख जिसके लिए
कोई मायने ना रखते हो- ऐसा सब आरम्भों
का त्यागी भक्त मुझे प्रिय है। (12/16)

🚩यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः।।

✅ऐसा पुरुष जो न कभी हर्षित होता हो,न द्वेष करता
हो,न शोक करता हो, न कामना करता हो, तथा
जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी
हो- ऐसा भक्ति युक्त पुरुष मुझे प्रिय है। (12/17)

🚩समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शितोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः।।
🚩तुल्यनिन्दास्तुति: मौनी संतुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।

✅जो पुरुष शत्रु-मित्र,मान-अपमान,सर्दी-गर्मी
सुख-दुःख आदि के द्वन्दों में समभाव से रहे।
आसक्ति से रहित हो।

✅निंदा तथा स्तुति को सामान समझता हो।
मननशील हो तथा येन केन प्रकारेण शरीर
के निर्वाह मात्र से संतुष्ट हो, भोग,विलास तथा
सुख-सुविधाओं की इच्छा से रहित हो और
अपने स्थान से ममता तथा आसक्ति नहीं
रखता हो- ऐसा स्थिरबुद्धि वाला भक्तिमान
पुरुष मुझे प्रिय है। (12-18/19)

🚩ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ।।

✳परंतु जो पुरुष श्रद्धायुक्त हो अर्थात वेद,शास्त्र,महात्मा
और गुरुजनों तथा परमेश्वर के वचनों पर विश्वास रखे,
मेरे परायण हो कर ऊपर कहे गए धर्ममय अमृत का
निष्काम भाव से प्रेमपूर्वक सेवन करता है, वह भक्त मुझे
अत्यधिक प्रिय है।(12/20)

जय सियाराम।

#मकरध्वज

🙏🙏

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